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भावनावाद ।
प्रथम परिच्छेद
[ १५३ __[ भाटेनारोपितान् दोषान् जैनाचार्याः निराकुर्वति ] तदनुपपन्नम् - 'वैषम्यात्' । संवेदनेन हि संवेद्यमानः स्वात्माऽर्थो' वा तस्य विषयो न पुनः संवेदक: स्वात्मा 'तत्संवेद्यत्वेन्यस्य "संवेदनस्यात्मन:12 13संवेदकत्वोपपत्ते14राकाङ्क्षा परिक्षयादनवस्थानवतारात्। वाक्येन तु भाव्यमान:1 पुरुषव्यापारो न तस्य
[ भाट्ट के द्वारा दिये गये दोषों का जैनाचार्य निराकरण करते हैं: जैन-यह आपका कथन ठोक नहीं है क्योंकि दृष्टांत और दाष्टीत में विषमता है। ज्ञान के द्वारा संवेद्यमान-जाना गया स्वपरग्राहक अतीन्द्रियकरण शक्ति रूप स्वात्मा अथवा पदार्थ उस वाक्य के विषय हैं किन्तु संवेदक स्वात्मा उसका विषय नहीं है । यदि स्वात्मा को भी संवेद्य रूप मान लेओगे तो अन्य संवेदन के स्वरूप को संवेदकपना आ जावेगा पुनः अवांतर व्यापार की आकांक्षा का परिक्षयअभाव होने से अनवस्था नहीं आवेगी।
विशेषार्थ-जैनाचार्यों ने "शब्द से उस शब्द का व्यापार भिन्न है या अभिन्न ?" इत्यादि विकल्प उठाकर भाट्टों पर दोषारोपण किया था। तो भाट्ट भी उसी पद्धति से जैनाचार्य के प्रति दोषारोपण करते हुए कहता है कि आप जैनों के यहाँ ज्ञान स्वपर को जानने वाला प्रसिद्ध है पुनः जब ज्ञान अपने स्वरूप को जानता है तब वह ज्ञान अपने से अभिन्न अपने स्वरूप को जानता है या अपने से भिन्न अपने स्वरूप को जानता है या अपने से भिन्नाभिन्न अपने स्वरूप को जानता है ?
इन तीन विकल्पों के सिवा चौथा विकल्प संभव ही नहीं है। यदि ज्ञान अपने से अभिन्न स्वरूप को जानता है तो वह ज्ञान ज्ञेय-जानने योग्य और ज्ञापक-जानने वाला इन दोनों रूप कैसे हो सकेगा क्योंकि ज्ञान और उसका स्वरूप सर्वथा अभिन्न रूप ही है। जब दूसरा भिन्न पक्ष लेवोगे तो अनवस्था आ जावेगी । एवं तृतीय पक्ष में दोनो पक्षों के दोष आ जाते हैं। यदि आप जैन कहें कि
1 जैनः । 2 दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकयोः। 3 वैषम्यं भावयति । 4 कर्तृ । (ब्या० प्र०) 5 स्वात्मा तु न संवेदकः किन्तु संवेद्य एव। 6 स्वपरग्राहिकातीन्द्रियशक्ति: करणरूपा स्वात्मा। 7 बाह्यार्थः । (ब्या० प्र०) 8 तस्य वाक्यस्य । 9 स्वात्मनः । 10 करणरूपस्य । 11 विषयरूपतया ग्राह्यत्वे। 12 स्वरूपस्य। 13 येन ज्ञानेन करणं संवेद्यं तस्य ज्ञानस्य संवेदकत्वोपपत्तेः। स्वार्थग्रहणलक्षणस्यापरव्यापारस्याकांक्षा परिक्षयादनवस्था नास्ति । वैशोऽपि परोक्षं मीमांसकस्य करणं ज्ञानं तथा जनानामनंगीकारात् । (ब्या० प्र०) 14 स्वार्थग्रहणलक्षणपरव्यापारस्य । (ब्या० प्र०) 15 अवान्तरव्यापारस्याकाङ्क्षा नास्ति तसो नानवस्था। 16 संवेद्यमानः स्वात्मार्थो वा तस्य विषय इति तदेव साध्यं । (ब्या० प्र०) 17 अन्यत्संवेदनं ह्यात्मानं स्वरूपं परिच्छिनत्ति । अतोन्यत्संवेदनं संवेदकं स्वात्मा तु संवेद्य इत्यायातम् । 18 शब्दव्यापारेण हि पुरुषव्यापारो भाव्यते तदानीमेव पुरुषव्यापार एव शब्दस्य विषयः न तु शब्दव्यापारः तस्य करणत्वात तथांगीकाराद्वैषम्यं शब्दस्य व्यापारो विषयः न तु पुरुषव्यापार इति कारणात् । (ब्या० प्र०) 19 उत्पाद्यमान ।
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