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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
इत्येतदप्ययुक्तं'--विशेषेपि समानत्वात् । सोपि हि यदि सामान्याद्व्यतिरिक्तस्तदा दूरे वस्तुनः स्वरूपे सामान्ये प्रतिभासमाने किन्न प्रतिभासते ? न हीन्द्रधनुषि नीले' रूपे प्रतिचकासति पीतादिरूपं दूरान्न प्रतिचकास्ति । अथ निकटदेशसामग्रीविशेषप्रतिभासस्य जनिका न दूरदेशत्तिनां प्रतिपत्तृणामिति न विशेषप्रतिभासन', 'तहि सामान्यप्रतिभासस्य जनिका दूरदेशसामग्री काचिन्निकटदेशत्तिनां नास्ति । ततो न निकटे तत्प्रतिभासनमिति समः समाधिः । अस्ति च निकटे सामान्यस्य प्रतिभासनं स्पष्टं विशेषप्रतिभासनवत् । यादृशं तु दूरे तस्यास्पष्टं प्रतिभासनं तादृशं न निकटे विशेषप्रतिभासनवदेव विशेषो' हि यथा दूरादस्पष्ट: प्रतिभाति न तथा सन्निधाने-4स्वसामग्र्यभावात् । अत एव च न
से प्रतिभासन होता है। यह आपका कथन भी विशेष में समान ही है अतः अयुक्त है।
वह भी यदि ऊर्ध्वता लक्षण सामान्य से भिन्न है तब तो दूर में वस्तु का स्वरूप प्रतिभासित होने पर वह (विशेष) प्रतिभासित क्यों नहीं होता है ? इन्द्र धनुष में सामान्य नील रूप के प्रतिभासित होने पर पीतादि रूप दूर से प्रतिभासित नहीं होते हैं ऐसा तो है नहीं।
सौगत–निकट देशरूप सामग्री विशेष प्रतिभास को उत्पन्न करती है किन्तु दूरदेशवर्ती पुरुषों को विशेष प्रतिभास उत्पन्न नहीं करती है इसलिए विशेष का प्रतिभास नहीं होता है।
भाट्ट-तब तो ऊर्ध्वता लक्षण सामान्य प्रतिभास को उत्पन्न करने वाली कोई दूरदेशवर्ती सामग्री निकट देशवर्ती जनों को नहीं है। इसलिये निकट में उसका प्रतिभास नहीं होता है। इस प्रकार से समान ही समाधान है। एवं निकट में ऊर्ध्वताकार सामान्य का प्रतिभासन स्पष्ट देखा जाता है जैसे कि विशेष का प्रतिभासन स्पष्ट है।
किन्तु दूर में जैसा उसका अस्पष्ट प्रतिभासन है वैसा निकट में नहीं है, विशेष प्रतिभासन के समान । और जिस प्रकार से विशेष दूर से अस्पष्ट प्रतिभासित होता है उस प्रकार से निकट में नहीं होता है किन्तु स्पष्ट ही प्रतिभासित होता है क्योंकि अपने अस्पष्ट प्रतिभासन की सामग्री का अभाव है।
1 भाट्टः । 2 ऊद्धर्वतालक्षणात् । 3 ऊर्ध्वताकारे। (ब्या० प्र०) 4 सामान्ये । 5 सति । (व्या० प्र०) 6 सौगतः । 7 प्रतिभासः इति पा० । (ब्या०प्र०) 8 भाट्टः। 9ऊर्ध्वतालक्षण। 10 कि च । (ब्या० प्र०) 11 ऊर्ध्वताकारस्य। 12 अत्र विशेषो हि प्रतिनियतदेशत्वादि ग्राह्यो न तु स्थाणुपुरुषादिरन्यथा संशयोत्पत्तिविरोधात्तथा वक्ष्यमाणत्वाच्च । (ब्या० प्र०) 13 किन्तु स्पष्ट एव। 14 स्वस्यास्पष्टप्रतिभासनस्य। 15 सामान्यवद्विशेषेष्वस्पष्टप्रतिभासनमेव को दोष इत्युक्ते आह । 16 सामान्यविशेषयोर्दरादस्पष्टतया प्रतिभासनादेव ।
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