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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद सामान्यस्य प्रतिभासने विशेषेष्वप्रतिभासमामेष्व'स्पष्टप्रतिभास व्यवहारः --प्रतिभासमानरूपे एव सामान्ये विशेषे वा अस्पष्टव्यवहारदर्शनात् । न ह्यप्रतिभासितान्य प्रतिभासिता वा 'कस्यचिदस्पष्टप्रतिभासिता । किं तहि ? [ स्पष्टास्पष्टव्यवहारी ज्ञानस्य धौं स्तः न च पदार्थस्य । स्पष्टज्ञानवच्च अस्पष्टज्ञानमपि सत्यमेव ] कुतश्चि दृष्टादृष्टकारणकलापादस्पष्टज्ञानस्योत्पत्तिरर्थेष्व स्पष्टता12--विषयिधर्मस्य विषयेषूपचारात् । संवेदनस्यैव ह्यस्पष्टता धर्मः स्पष्टतावत् । तस्या विषयधर्मत्वे 14सर्वदा तथाप्रतिभासप्रसङ्गात् "कुतः प्रतिभास"परावृत्तिः 18स्यात् ? न चास्पष्टं संवेदनं निविषयमेव---20संवादकत्वात् "स्पष्टसंवेदनवत् । क्वचिद्विसंवाददर्शनात् सर्वत्र विसंवादे----स्पष्ट __अतएव सामान्य और विशेष का दूर से अस्पष्ट प्रतिभासन होने से ही सामान्य का प्रतिभास होने पर और विशेषों के प्रतिभासित न होने पर अस्पष्ट प्रतिभास व्यवहार नहीं है, क्योंकि प्रतिभासमान स्वरूप सामान्य अथवा विशेष ज्ञान में ही अस्पष्ट व्यवहार देखा जाता है। सामान्य और विशेष में से किसी एक की अप्रतिभासिता अथवा अन्य की प्रतिभासिता किसी सामान्य अथवा विशेष की अस्पष्ट प्रतिभासिता नहीं है । शंका-तो क्या है ? [स्पष्टता और अस्पष्टता ज्ञान के धर्म हैं पदार्थ के नहीं । एवं स्पष्ट ज्ञान के समान अस्पष्ट ज्ञान भी प्रमाण है] समाधान-किसी दृष्ट कारण-देशकालादि और अदृष्ट कारण-मति ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष रूप कारण कलाप से अर्थ में-पदार्थ में अस्पष्ट ज्ञान की उत्पत्ति होना ही अस्पष्टता है क्योंकि विषयी धर्म का विषयों में उपचार किया जाता है । अतः अस्पष्टता संवेदन - ज्ञान का ही धर्म है जैसे कि स्पष्टता संवेदन का धर्म है। और उस अस्पष्टता को विषय का धर्म मानने पर तो सर्वदा अन्धकार अवस्था में भी तथाउद्योत अवस्था के समान प्रतिभास का प्रसंग आ जावेगा। एवं स्पष्टता ही सर्वथा वस्तु का धर्म है ऐसा स्वीकार करने पर पुनः प्रतिभास की परावृत्ति कैसे हो सकेगी ? 1 सर्वथा। 2 नैयायिकोक्तः । (ब्या० प्र०) 3 सर्वदा। 4 प्रतिभासमानस्वरूपे। इति पा०। (ब्या० प्र०) 5 सामान्यज्ञाने विशेषज्ञाने वा। 6 सामान्यविशेषयोर्मध्ये एकस्य। 7 सामान्यस्य विशेषस्य वा। 8 अस्पष्टस्पष्टप्रतिभासिताभेदेपि ज्ञानाश्रिते स्तो न तु वस्त्वाश्रिते। 9 दृष्टाकारणं देशकालादि अदष्टं कारणं मतिज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषः । 10 दृष्ट-चक्षुरादि । अदृष्ट-पुण्यपापादि । (ब्या० प्र०) 11 भवति । 12 ईषत्प्रतिभासनं सूक्ष्मवस्त्राच्छादितवस्तुवत् । (ब्या० प्र०) 13 अस्पष्टतायाः । 14 अन्धकारावस्थायामपि । 15 उद्योतावस्थायामिव । 16 वस्तुनः स्पष्टताधर्मस्य सर्वदा प्रतिभासस्याङ्गीकारे दूषणमाह। 17 निवृत्तिः । (ब्या० प्र०) 18 बौद्धाभिप्रायमनूद्य वक्ति। 19 (भाट्टः) सविकल्पकम् । 20 सत्यत्वात् । 21 निर्विकल्पकवत् । 22 अस्पष्टज्ञाने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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