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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
'करोतिसामान्यं न वास्तवमस्ति - 2 बुद्ध्यभेदात् । व्यवस्थितिः--— 'अतिप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-
[ १४१
न हि बुद्धिभेदमन्तरेण पदार्थभेद
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न भेदाद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्ध्यभेदतः ' । ' बुद्ध्याकारस्य भेदेन पदार्थस्य विभिन्नता || इति ।। तदेतदसदेव' -- ' सामान्यभेदयोर्बुद्धिभेदस्य सिद्धत्वात् । सामान्यबुद्धिर्हि तावदनुगताकारा' विशेषबुद्धिः पुनर्व्यावृत्ताकारानुभूयते ? दूरादूर्ध्वता सामान्यमेव च प्रतिभाति न स्थाणुपुरुषविशेषौ -- -- तत्र सन्देहात् " । तद्विशेषपरिहारेण प्रतिभासनमेव 12 सामान्यस्य ततो व्यतिरेकावभासनम् — एतावन्मात्रलक्षणत्वा तद्व्यतिरेकस्य यदप्युक्तम् 14
15 ताभ्यां 16 तद्व्यतिरेकश्चेत् किन्न 17 दूरेवभासनम् । दूरेवभासमानस्य 18 सन्निधानेति'' भासनम् ।
करने वाली "करोति" क्रिया और विशेष को ग्रहण करने वाली “यज्यादि" क्रिया है, इस प्रकार की बुद्धि का अभाव है । और बुद्धि में भेद के बिना पदार्थ के भेद की व्यवस्था नहीं हो सकती है । अन्यथा - अति प्रसंग दोष आ जावेगा । अर्थात् एक घट ज्ञान से सभी का ज्ञान हो जावेगा अथवा एक घट ज्ञान से सभी घटों की प्रतीति का प्रसंग आ जावेगा। कहा भी है
श्लोकार्थ - भेद से भिन्न अन्य कोई सामान्य नहीं है क्योंकि बुद्धि से अभेद है । एवं बुद्ध्याकार के भेद से ही पदार्थ का भेद देखा जाता है । अर्थात् यह बुद्धि सामान्य को ग्रहण करने वाली है एवं यह विशेष को ग्रहण करने वाली है इस प्रकार से बुद्धि में भेद का अभाव है ।
भाट्ट - आपका यह सब कथन असत् रूप ही है । क्योंकि सामान्य और विशेष में बुद्धि का भेद सिद्ध ही है । " इदं सत् इदं सत्" इस प्रकार के अनुगताकार को सामान्य ज्ञान कहते हैं । एवं "इदं न इदं न" इस प्रकार से व्यावृत्ताकार को विशेष ज्ञान कहते हैं ये दोनों ज्ञान अनुभव सिद्ध हैं, दूर से ऊर्ध्वता सामान्य ही प्रतिभासित किन्तु स्थाणु और पुरुष विशेष प्रतिभासित नहीं होते हैं क्योंकि वहाँ संदेह देखा जाता है । और विशेष का परिहार करके सामान्य का प्रतिभासन ही उस सामान्य से व्यतिरेक का अवभासन है और इतना मात्र ही उस व्यतिरेक का लक्षण है जो कि आपके यहाँ धमकीर्ति ने कहा है
श्लोकार्थ – स्थाणु और पुरुष में जो भेद है वही व्यतिरेक है यदि ऐसा कहो तो निकट में अवभासन क्यों नहीं होता है क्योंकि दूर में अवभासित सामान्य का सन्निधान होने पर विशेष रूप
1 करोति सामान्यग्राहिका यज्यादिविशेषग्राहिकेति प्रकारेण बुद्ध्यभावात् । 2 विशेषग्राहिका सामान्य ग्राहिकेति अनेन प्रकारेण बुद्धेर्भेदाभावात् । (ब्या० प्र० ) 3 एकेन घटज्ञानेनान्येषां ज्ञानं स्यात् । अथवा एकेन खटज्ञानेन सर्वेषां घटानां प्रतीतिप्रसङ्गात् । 4 विशेषात् । ( ब्या० प्र० ) 5 इयं सामान्यग्राहिकेयं विशेषग्राहिकेत्यनेन प्रकारेण बुद्धेर्भेदाभावात् । 6 स्वरूपस्य । ( ब्या० प्र० ) 7 भाट्टः । 8 सामान्यविशेषयोः ( ईपू ) ( सप्तमी ) । 9 इदं सदिदं सदिति । 10 नेदं नेदमिति । 11 दूरादूद्ध र्वतासामान्यस्यैव प्रतिभासनं भवतु । एतावता तस्यास्ततो ( विशेषात् ) व्यतिरेकावभासनं कुत इत्याह । 12 व्यतिरेकस्य । 13 सामान्यात् । 14 धर्मकीर्तिना । 15 स्थाणुपुरुषाभ्याम् । 16 भेदः । 17 किन्नादूरे इति पा० । (ब्या० प्र० ) 18 सामान्यस्य । 19 विशेषतया प्रतिभासनम् ।
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