SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छश विषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ॥ 'न 2 चैवं विशेषेऽदृश्यानुपलब्धेरेव संशयः -- स्मृतिनिरपेक्षत्वप्रसङ्गात् । विशेषस्मृतिरेव संशय इति चेन्न --- साध्यसाधनव्याप्तिस्मृतेरपि संशयत्वप्रसङ्गात् । सर्वसाधनानां संशयित - साध्यव्याप्तिकत्वापत्तेस्तत्स्मृतेरचलितत्वान्न संशयत्वमिति चेतहि चलिता ' ' प्रतीतिः संशयः । सा' चोभयविशेषस्मृत्युत्तरकालभाविनी -- तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् । न 'पुनविशेष स्मृति संशय है ऐसा भी नहीं कहना, अन्यथा - वह स्मृति से निरपेक्ष हो जावेगा । 1 विशेषार्थ - यहाँ पर भाट्ट ने संशय का लक्षण किया है कि "सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से, और विशेष धर्म के प्रत्यक्ष न होने से एवं विशेष की स्मृति होने से सशय होता है ।" एवं जैनाचार्यों के संशय का लक्षण इस प्रकार है "विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानं संशयः " यथा स्थाणुर्वा पुरुषोवेति । स्थाणुपुरुषसाधारणोर्ध्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटरशिरः पाण्यादेः साधकप्रमाणाभावादनेककोटयवलंबित्वं ज्ञानस्य । अर्थात् विरुद्ध "अनेक पक्षों के अवलंबन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं" । जैसे - यह स्थाणु (ठूंठ ) है या पुरुष ? यहाँ स्थाणुत्व और स्थाणुत्वाभाव पुरुषत्व और पुरुषत्वाभाव इन चार अथवा स्थाणुत्व और पुरुषत्व इन दो पक्षों का अवगाहन होता है । प्रायः संध्या आदि के समय मंद प्रकाश होने के कारण दूर से मात्र स्थाणु और पुरुष दोनों में सामान्य रूप से रहने वाले ऊंचाई आदि साधारण धर्मों के देखने से और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणों का अभाव होने से नाना कोटियों का अवलंबन करने वाला यह संशय ज्ञान होता है । मतलब चलायमान ज्ञान को संशय कहते हैं, यह ऐसा है या ऐसा ? इत्यादि । यहाँ पर भाट्ट द्वारा मान्य लक्षण भी प्रायः मिलता जुलता है । इस पर बौद्ध की अनेक कल्पनायें हैं "विशेष की अदृश्यानुपलब्धिरूप अभाव से संशय होता है" या विशेष की स्मृति से संशय होता है इत्यादि मान्यतायें ठीक नहीं हैं । [ १३३ शंका - विशेष की स्मृति होनी ही संशय है । भाट्ट-- ऐसा भी नहीं कहना । अन्यथा साध्य साधन की व्याप्ति का स्मरण भी संशय हो जावेगा । पुनः सभी हेतुओं को संशयित साध्य से व्याप्त मानना होगा । यदि आप कहें कि उन हेतुओं की स्मृति अचलित है अतः उनसे संशय नहीं होता है तब तो चलित प्रतिति ही संशय है यह बात सिद्ध हो गई । और वह चलित प्रतीति उभय ( यजन और पचन रूप उभय) विशेष स्मृति के उत्तर काल में 1 (भट्ट) विशेषाणामनुपलम्भादभावासिद्धप्रकारेण । 2 एवं विशेषे सामान्याविनाभाविनि सति अदृश्यानुपलब्धेः सकाशात्संशयो न भवति किन्तु दृश्यानुपलब्धेरेव संशयः । अदृश्यानुपलब्धी स्मृतेनिरपेक्षत्वं भवति किन्तु दृश्यानुपलब्धी सापेक्षा स्मृतिः । 3 संशयिता संशयप्राप्ता साध्ये व्याप्तिर्येषां तानि संशयितसाध्यव्याप्तिकानि तेषां भाव इत्यादि । 4 अनिश्चिता । 5 प्रतिपत्तिरिति पाठान्तरम् । 6 यजनपचनयोः । (ब्या० प्र० ) 7 संशयस्य । 8 हि चलिता प्रपिपत्तिः संशयो न पुनर्विशेषे स्मृतिरेवेति संबंधो दृष्टव्य: । ( ब्या०प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy