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अष्टसहस्री
[ कारिका ३संशीतावतिप्रसङ्गः--सामान्यविशेषयोः 'कथञ्चिदभेदात् । --हिमवद्घटादीनां तु परस्परमत्यन्तभेदात् । एकत्र निश्चयेपि 'नानवगततदन्यतमे संशीतिर्यतोतिप्रसङ्गः स्यात् । नापि सामान्येनाक्षिप्ते तद्विशेषसंशयो'पगमोस्ति यतस्तदाक्षेपपक्षनिक्षिप्तदोषो पक्षेप:11 । न 12चैवमनभिमततद्विशेषेष्वविशेषेण संशयोनुषङ्गी--स्मरणविषये एव विशेषेनेकत्र13 14संशयप्रतीतेः ।
[ संशयलक्षणस्य विचार: ] सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशय इति वचनात् । सामान्ये ह्युपलभ्यमाने 1 तदविनाभाविनो विशेषस्यानुपलम्भेपि नाभावः सिद्धयति--तदभावे तस्याप्यभावप्रसङ्गात् । तदुक्तम् ।--
एकत्र-घट का निश्चय होने पर भी हिमवन् पर्वत आदि के नहीं जानने पर संशय नहीं हो सकता है कि जिससे अति प्रसंग दोष आ सके अर्थात् नहीं आ सकता है । एवं सामान्य से स्वीकृत में उस विशेष का संशय भी नहीं हैं, कि जिससे उस आक्षेप पक्ष में निक्षिप्त दोषों का प्रसंग हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है। मतलब हमारे स्वीकार किये गये पक्ष में दिये गये दोषों का प्रसंग नहीं हो सकता है और इस प्रकार से अनभिमत उन विशेषों में सामान्य रूप से संशय का प्रसंग नहीं है क्योंकि स्मरण के विषयभूत अनेक विशेष में ही संशय होता है । अर्थात् विवक्षित वस्तु में सामान्य के साथ अविनाभावी बहुत से विशेषों के होने पर एक स्मरण के विषयभूत विशेष में संशय घटित होता है अनभिमत अविवक्षित वस्तु के उन विशेषों में संशय नहीं होता है।
[संशय के लक्षण का विचार ] क्योंकि "सामान्य का प्रत्यक्ष होने से और विशेष का प्रत्यक्ष न होने से एवं विशेष की स्मति के होने से संशय होता है" ऐसा हमने कहा है । सामान्य के उपलभ्यमान होने पर उस सामान्य से अविनाभावी विशेष की अनुपलब्धि में भी अभाव सिद्ध नहीं होता है क्योंकि उस विशेष के अभाव में तो सामान्य के भी अभाव का प्रसंग आ जावेगा । कहा भी है
श्लोकार्थ-निविशेष सामान्य खरगोश की सींग के समान है और सामान्य रहित विशेष भी उसी प्रकार से-शश विषाण के समान ही है । इस प्रकार से विशेष में अदृश्यानुपलब्धि के होने ही
1 क्रियान्वयलक्षणसामान्यरूपेण । 2 घटे । 3 हिमवदादौ । 4 तदन्यतमसंशीति: इति पा०। (ब्या० प्र०)5 ज्ञाते। (ब्या० प्र०) 6 तद्विशेषे इति पा० । (ब्या० प्र०)7 सामान्यरूप । विशेषमात्रे इत्यर्थः । (ब्या०प्र०) 8 कथंचिदभिन्ने । (ब्या० प्र०) 9 भासः विशेषस्य । (व्या० प्र०) 10 अनवस्थादि प्राप्तिः । (न्या० प्र०) 11 अपि तु न । 12 सामान्येनाक्षिप्ते तद्विशेषे संशयानुपगमप्रकारेण । विवक्षितविशेषप्रकारेण । अविवक्षितं । (ब्या० प्र०) 13 विशेषे अनेकत्र । (ब्या. प्र०) 14 विवक्षितवस्तुसामान्याविनाभाविविशेषेषु बहुषु सत्स्वेकस्मिन् स्मरणगोचरे विशेषे संशयो घटते । अनभिमतस्याविवक्षितस्य वस्तुनस्तेष विशेष संशयो नास्ति । 15 सामान्य । 16 विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावप्रसङ्गात् ।
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