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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १३१ एवं 'तहि सैवानुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धिः संशयहेतुरिति प्राप्तं; विशेषस्मृतेरिति च व्यर्थम् । न हि विशेषस्मृतिव्यतिरेकेणापरः संशयः-उभयांशावलम्बिस्मृतिरूपत्वात्संशयस्य । दृश्यते च कन्याकुब्जादिषु सामान्यप्रत्यक्षतामन्तरेणापि' प्रथमतरमेव स्मरणात् संशयः । तस्मात्करोतीति तदेव यज्यादिकमनियमेन प्रतीयमानं 'सामान्यतो 10दृष्टानुमानात्सामान्यम् । द्धनारोपितसंशयदोषो भाट्न निराक्रियते । तदेतदपि प्रज्ञापराधविजृम्भितं प्रज्ञाकरस्य--करोत्यर्थसामान्यस्याध्यवसाये11 यज्याद्यर्थविशेषानवगतावेव तत्संशयोपगमात् । न च सामान्येध्यवसिते ततोन्यत्र-विशेषेनध्यवसिते13 बौद्ध-यदि ऐसा है तो वही अनुपलब्धि लक्षण प्राप्त अनुपलब्धि संशय का हेतु है यह बात सिद्ध हो गई है पुन: "विशेष की स्मृति होने से" यह कथन व्यर्थ ही है। विशेष स्मृति को छोड़कर संशय नाम की और कोई चीज ही नहीं है। क्योंकि संशय तो "यजति, पचति" उभय अंश का अवलंबन करने वाली जो स्मृति है उस रूप है। कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों में सामान्य प्रत्यक्षता के बिना भी प्रथमतर के स्मरण से ही संशय होता है। इसलिए करोति इस प्रकार का कथन है वही यज्यादि विशेष रूप है और अनियम से-बिना नियम के प्रतीत होता हुआ सामान्य (एक रूप से) दृष्टानुमान से सामान्य है। [ बौद्ध के द्वारा आरोपित संशय दोष का भाट्ट के द्वारा निराकरण किया जाता है। ] भाट्ट-यह सब आप प्रज्ञाकर का कथन भी प्रज्ञा के अपराध से विज भित ही है। क्योंकि करोति क्रिया के अर्थ सामान्य का निश्चय हो जाने पर एवं यज्यादि अर्थ विशेष का ज्ञान न होने पर ही विशेष में संशय घटित होता है। सामान्य के निश्चित होने पर और उससे अन्यत्र विशेष का निश्चय न होने पर संशय होता है ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आ जावेगा क्योंकि सामान्य और विशेष में कथंचित् अभेद स्वीकार किया गया है। किन्तु हिमवन पर्वत एवं घटादिकों में तो परस्पर अत्यंत भेद देखा जाता है। 1 पूर्वोक्तानुपलब्धिमात्ररूपा । (ब्या० प्र०) 2 तर्हि वैयर्थ्य भवतु का नो हानिरित्युक्ते आह। 3 यजतिपचति । 4 नागरेषु कान्यकुब्जादिषु इति खपाठः। 5 सामान्ये संशयस्यान्वयतिरेको न स्त: । अनुपलब्धिमात्रे स्तः। ततश्च सामान्य प्रत्यक्षादिति विशेषणं व्यर्थम् । 6 संशयो न घटते यतः। 7 उल्लेखनम् । 8विशेषरूपं न तु करोतीति क्रियारूपम् । 9 एकत्वेन । 10 दृष्ट इति भावप्रधानोयं निर्देशः। ततश्च सामान्यतो दृष्टात् सामान्यरूपेण दृश्यमानत्वाल्लिङ्गाज्जातमनुमानं तस्माद्यज्यादिकं सामान्यम्-तथैव दृश्यमानत्वात् । यद्यथा दृश्यते तत्तथैव भवति यथा नीलं नीलतया। इत्यनुमानम्। (भट्टः) यज्यादिकं सामान्यं न भवति–तद्व्यतिरिक्तकरोतिसामान्यासम्भवात् । सत्त्वसामान्यासम्भवे घटादिवत् । इत्युक्ते सौगत: प्राह ।-यज्यादिकं स्वव्यतिरिक्तकरोतिसामान्यासम्भवेपि सामान्य भवति परापरसामान्येषु सामान्यान्तराऽभावेपि सामान्यं सामान्यमिति प्रतीतिलक्षणानुमानसद्भावादिति भावः । 11 निश्चये। 12 विशेषे संशयो घटते । 13 विशेषेऽनवसिते इति वा क्वचित् पाठः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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