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[ कारिका ३
प्रतीत एवेति कथं संशय: ? न हि प्रतीतत्वादपर आक्षेप: । अथ प्रतीत एवासौ 2 सामान्येन न तु विशेषेण -- तस्य सामान्यरूपेणाक्षेपात् ' । ' ननु तदेव सामान्यमाक्षेपक' तदेवाक्षेप्यमिति कथमेतत् ? न च सामान्यादपरं सामान्यमाक्षेप्यम् । तथा सति ततोप्यपरं ततोप्यपरमित्यनवस्था' | 'ननु सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाऽप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयो युक्त " एव, न 2 त्वनुपलम्भादभाव 3 एव 14 युक्त: "सामान्येनानुपलम्भप्रमाणवादिनः " । "अथोपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलम्भादभावे'' नानुपलब्धिमात्रात् " तथा " नुपलब्धेरेव 21 संशयः 22 व्यर्थमेतत्सामान्यप्रत्यक्षादिति । यदि सामान्यप्रत्यक्षतायामप्युपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धिर्न 24 22 स्यात् । 26 स्यात्संशय:27 । 28अथोपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धिरेव न सम्भवति सामान्यप्रत्यक्षतायाम् ।
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अष्टसहस्री
बतलाने योग्य हो यह कैसे हो सकेगा ? एवं सामान्य से भिन्न कोई सामान्य आक्षेप्य है नहीं । यदि अपर सामान्य मानोगे तो उससे भी भिन्न अपर सामान्य पुनः उससे भी भिन्न अपर सामान्य इत्यादि रूप से अनवस्था आ जावेगी ।
भाट्ट - सामान्य का प्रत्यक्ष होने से तथा विशेष का प्रत्यक्ष न होने से एवं विशेष की स्मृति के होने से संशय होना युक्त ही है किन्तु अनुपलंभ होने से अभाव ही है ऐसा कहना युक्त नहीं है क्योंकि हम भाट्ट सामान्य अनुपलंभ प्रमाणवादी हैं । अर्थात् दृश्यानुपलंभ और अदृश्यानुपलंभ के विभाग बिना अनुपलम्भमात्र से अभाव कहना ठीक नहीं है ।
उपलब्धि लक्षण प्राप्त वस्तु का अनुपलब्धि से अभाव होता है अनुपलब्धिमात्र से नहीं ।
प्रज्ञाकर — उस प्रकार से अनुपलब्धि से अभाव होता है इसलिए “सामान्यप्रत्यक्षात्” यह कथन व्यर्थ है । यदि सामान्य की प्रत्यक्षता हो जाने पर उपलब्धि लक्षण प्राप्त अनुपलब्धि नहीं होवे तब तो संशय हो सकता है ।
भाट्ट - सामान्य की प्रत्यक्षता में तो उपलब्धि लक्षण प्राप्त अनुपलब्धि ही संभव नहीं है ।
1 स्वीकारः । 2 करोत्यर्थेन । 3 यज्याद्यर्थेन । 4 परिज्ञानात् । 5 बौद्धः । 6 ज्ञापकम् । 7 अपरस्मिन् सामान्ये सति । 8 विशेषं विना सामान्यं न प्रतीयते सामान्ये विशेषस्याक्षेपात् तर्हि विशेषः प्रतीयते एवेत्यादि ग्रंथपरावर्तः । ( ब्या० प्र० ) 9 भाट्टः । 10 अदर्शनात् । ( व्या० प्र० ) 11 दृश्यमानानुपलम्भादृश्यमानानुपलम्भविकल्पद्वयं परिहृत्य सामान्यमेवानुपलम्भप्रमाणं यो वदति तस्यानुपलम्भादभाव एव घटते, न तु संशयः । 12 नन्वनुपलंभात् इति पा० । प्रज्ञाकर: । ( ब्या० प्र० ) 13 विशेषस्य । ( ब्या० प्र० ) 14 न तु संशयः । ( ब्या० प्र०) 15 दृश्यादृश्यानुपलं भविभागं विना । ( ब्या० प्र० ) 16 भाट्टस्य | 17 भाट्टः प्राह । 18 अभावो इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 19 तथा सत्यप्यनुपलब्धेरेव इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 20 उत्तरमाह प्रज्ञाकरः । 21 अनुपलब्धिमात्रादेव । 22 यतस्ततः । 23 यज्यादि । 24 किन्त्वनुपलब्धिमात्रं स्यात् । 25 तर्हि । 26 नास्ति च तथा ततश्च भाव एवेति भावः । 27 तथाऽनुपलब्धिलक्षणरूपायाः पिशाचादीनामनुपलब्धेः संशयो युक्तः । 28 भाट्ट: ।
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