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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
[ १२६ र्थयोस्तादात्म्यमेषितव्यम्-'तत्रैव प्रश्नोत्तरदर्शनादिति । तदेतदनुपपन्नम् करोत्यर्थस्य सामान्यरूपत्वात्-तद्विशेषरूपत्वाच्च यज्यादेः । सामान्यविशेषयोश्च कथञ्चिदभेदोपगमात् । 'सन्दिग्धस्यैव कथनात् । प्रश्नोत्तरक्रमस्य दुर्घटत्वाघटनात् । तदभेदैकान्ते एव तस्य दुर्घटत्वात् । स्यादाकूतं ते ।'न सामान्यं विशेषेण विना 1 किञ्चित्प्रतीयते11 । सामान्याक्षिप्य माणस्यन हि14नामाऽप्रतीतता॥
1 केवलसामान्यप्रतीतौ हि विशेषांशे सन्देह 16इत्ययुक्तम्---"तस्याऽप्रतीतत्वात् । घटप्रतीतौ हिमवदादिवत् । 20अथ सामान्येन विशेष आक्षिप्यते । तथा सति सोपि
संदिग्ध-यज्यादि अर्थ में ही प्रश्न देखे जाते हैं। अतः प्रश्नोत्तर का क्रम दुर्घट नहीं होता है । अर्थात् सामान्य विशेष में कथंचित् सामान्य की अपेक्षा से अभेद के स्वीकार करने से एकतर-दो में से एक रूप के संदिग्ध का कथन होने से प्रश्नोतर का क्रम बन जाता है उन सामान्य विशेष में सर्वथा-एकांत से अभेद स्वीकार करने पर ही वह क्रम दुर्घट है ।
बौद्ध (प्रज्ञाकर)-श्लोकार्थ-"विशेष के बिना सामान्य कुछ भी प्रतीति में नहीं आता है विशेष युक्त ही प्रतीति में आता है। एवं जो सामान्य से स्वीकृत की गई है उसकी निश्चय से अप्रतीति नहीं होती है।" केवल सामान्य की प्रतीति के हो जाने पर विशेषांश में संदेह होता है आप भाट्ट के यहाँ जो ऐसा कथन है वह अयुक्त है क्योंकि वह विशेष प्रतीति नहीं होता है जैसे घट की प्रतीति में हिमवन् आदि प्रतीत नहीं होते हैं ।
भाट्ट-सामान्य (करोति) अर्थ से विशेष (यज्यादि) अर्थ ग्रहण किये जाते हैं । उस सामान्य के प्रतीत होने पर वह विशेष भी प्रतीत होता ही है अत: संशय कैसे हो सकेगा? क्योंकि प्रतीत को छोड़ कर और अन्य कोई स्वीकृति है ही क्या ?
__ वह सामान्य-करोति अर्थ से प्रतीत ही है किन्तु विशेष-यज्यादि अर्थ रूप से नहीं है क्योंकि वह विशेष सामान्य रूप से ही जान लिया जाता है।
बौद्ध-वह सामान्य ही आक्षेपक-ज्ञापक-बतलाने वाला हो और वही आक्षेप्य-ज्ञाप्य---
1 गौः कीदृशीति प्रश्ने धवले ति उत्तरमुदाहरणं । (ब्या० प्र०) 2 आह भट्टः । -सामान्यविशेषयोर्वस्तुस्वरूपयोः सर्वथै क्यमित्येतद्वचो बौद्धस्य प्रमाणविरुद्धम् । 3 सामान्यापेक्षया । (ब्या० प्र०) 4 यज्याद्यर्थस्य। 5 प्रश्नात् । 6 सामान्यविशेषयोः कथञ्चित्सामान्यापेक्षया अभेदोपगमादेकतरस्य सन्दिग्धस्य कथनात् प्रश्नोत्तरक्रमो घटते । 7 तयोः सामान्यविशेषयोः सर्वथाऽभेदे सत्येव तस्य प्रश्नोत्तरक्रमस्य दुर्घटत्वं स्यात् । 8 प्रज्ञाकरस्य। 9 भट्टेन यदि सामान्यविशेषयोः कथञ्चिद्भेदोभ्युपगम्यते तदा न सामान्यमित्यादि । 10 ततः कथं विशेष संदेहः । (ब्या० प्र०) 11 विशेषयुक्तमेव प्रतीयते इत्यर्थः। 12 सामान्येन स्वीक्रियमाणस्य (ज्ञाप्यमानस्य)। 13 विशेषस्य प्रतीतस्य । (ब्या० प्र०) 14 निश्चयेन । 15 कारिकायाः पूर्वांशस्य सुगमत्वादुत्तरार्द्ध व्याचष्टे । 16 भट्टवचनम् । 17 विशेषस्य । 18 सामान्यविशेषयोः सर्वथा भेदविवक्षायां वक्ति । (ब्या० प्र०) 19 संदेहः स्यान्न च तथा। (ब्या० प्र०) 20 भटटः। 21 करोत्यर्थेन । 22 यज्याद्यर्थः। 23 (बौद्धः) सामान्ये प्रतीते सति ।
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