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१२६ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३तुरसत्त्वे सांवृतत्वे वावस्थायाः सत्त्वाऽसांवृतत्वविरोधात् 'खपुष्पसौरभवत् कृत्रिमफणिफटादिवच्च । ततो वस्तुस्वभावाश्रय' एव यागं करोतीति व्यपदेशः---सत्यप्रतीतिकत्वात् । संविदमनुभवतीत्यादि व्यपदेशवत् ।
तथा द्विजस्य व्यापारी याग इत्यभिधीयते । ततः परा च निर्बाधा करोतीति क्रियेष्यते ॥ यजि क्रियापि "भावस्याऽ विशेषादपरव9 10हि । 11सामानाधिकरण्येन देवदत्ततया ३ गतेः॥ [ करोतिक्रिया सामान्यं यज्यादिक्रिया विशेषाः तयोः सामान्यविशेषयोः भेदोऽस्ति इति भाट्टे नोच्यमाने बौद्धो
दोषानारोपयति ] द्विजो हि व्याप्तेत रावस्थानुयायी14 15स 16एवायमित्येकत्वप्रत्यवमर्षवशानिश्चितात्मा?
कहने पर उस
जावेगा। अर्थात् स्थितिमान् का अभाव मान लेने पर अथवा उसे काल्पनिक मान लेने पर अवस्था का भी सत्त्व, वास्तविकत्व विरुद्ध हो जावेगा। जैसे आकाश पुष्प का अभाव कहने पर अथवा उसे काल्पनिक मान लेने पर उसकी सुगन्धि का सत्त्व और वास्तविकत्व विरुद्ध है मतलब न आकाश पुष्प ही है न सुगन्धि ही है । एवं कृत्रिम फणि के फटाटोप के समान व्यर्थ है । अर्थात् जैसे कागज या मिट्टी का बनाया हुआ सर्प फण को उठाकर डरा नहीं सकता है वैसे ही स्थितिमान् वस्तु को काल्पनिक
के अवयव आदि भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे। इसलिए 'यागं करोति' यह व्यपदेश
का ही आश्रय लेने वाला है क्योंकि सत्य प्रतीति आ रही है अर्थात यागकृति-यज्ञक्रिया लक्षण र्थ अपने स्वरूप के आश्रित ही है, भावना लक्षण जो वस्तू है वह स्वभावाश्रित ही है अर्थ शून्य नहीं है । जैसे "संविदं अनुभवति"-ज्ञान का अनुभव करता है इत्यादि कथन पाये जाते हैं। और दूसरी बात यह है कि
श्लोकार्थ-द्विज-ब्राह्मण का व्यापार यज्ञ है ऐसा कहा जाता है । और उससे भिन्न बाधारहित "करोति" यह क्रिया स्वीकर की गई है।
श्लोकार्थ-यदि क्रिया भी द्विज लक्षण भाव (पुरुष) से अभेद रूप होने से भिन्न है अथवा यज्ञ क्रिया भी द्विज-पुरुष से भिन्न होने से भिन्न ही है। ऐसा भी अर्थ टिप्पणी के आधार से होता है क्योंकि देवदत्त के साथ ज्ञान का समानाधिकरण है, सर्वथा ऐक्यरूप समानाधिकरण नहीं है ।।
1 खपुष्पस्यासत्त्वे सांवृतत्वे च सौरभस्य सत्त्वमसांवृतत्वं च विरुद्धयते यथा। 2 शिलापुत्रकस्य शरीरमित्यादि व्यवहारः कथञ्चिद्भेदमन्तरेण घटते यतः। 3 यागकृतिलक्षण: पदार्थ आत्मस्वरूपाश्रय एव। 4 भावनालक्षणं यद्वस्तु तत्स्वभावाश्रय इत्युक्तेऽर्थशून्यत्वं नेत्यर्थः। 5 कर्तृकर्मरूपमत्रवस्तु । यथा एकस्य संवेदनस्य कर्तृत्वं कर्मत्वं । (ब्या० प्र०) 6 किञ्च । 7 भावस्य विशेषात् इति पा० । विशेषात्-भेदात् । (ब्या० प्र०) 8 द्विजलक्षणस्य द्रव्यस्य। 9 अभेदात् । 10 यजि क्रिया च द्रव्यस्य विशेषादपरा नहीति च पाठः। 11 सर्वथा ऐक्ये सामानाधिकरण्यं नास्ति यतः । (ब्या० प्र०) 12 सहार्थे तृतीया। 13 यो द्विजः पूर्वं यागं कुर्वन् स्थितः स एवायं यागमकृत्वा स्थित इति । (ब्या० प्र०) 14 व्यापृतावस्थाव्यापी। (व्या० प्र०) 15 अव्यापृतावस्थाव्यापी। (ब्या० प्र०) 16 प्रत्यभिज्ञान।
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