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________________ प्रथम परिच्छेद भावनावाद ] [ १२७ परमार्थात्सन्नेकः । यागस्तु तद्व्यापारः प्रागभूत्वा भवन् पुनरपगच्छन्ननित्यतामात्मसात्कुर्वन् भेदप्रत्ययविषयस्ततोऽपर' एव--'कथञ्चिद्विरुद्ध धर्माध्यासात् । तथा यागेतरव्यापारव्यापिनी' करोतीति 1°क्रियानुस्यूतप्रत्ययवेद्या "तद्विपरीतात्मनो यागादर्थान्तरभूता सर्वथाप्यप्रतिक्षेपार्हानुभूयते-1 यजते यागं करोति देवदत्त इति 14समानाधिकरणतया देवदत्तेन सहावगतेः । 16सर्वथा तदैक्ये तद्विरोधात् पटतत्स्वात्मवत् । किं करोति देवदत्तः ? [ करोति क्रिया सामान्य रूप है और यजनपचनादि क्रियायें विशेष रूप हैं। इनमें भेद हैं, ऐसा भाट्ट के कहने पर बौद्ध के द्वारा दोष आरोपित किये जाते हैं । यहाँ द्विज, व्यापार और अव्यापार दोनों ही अवस्था का अनुयायी-"यह वही है" इस प्रकार से एकत्व के प्रत्यवमर्ष-प्रत्यभिज्ञान से निश्चित स्वरूप वाला है और वह द्विज परमार्थ से सत् रूप एक है अर्थात् जो ब्राह्मण पहले यज्ञ को करते हुए स्थित था यह वही यज्ञ को न करते हुए स्थित है।" किन्तु याग उसका व्यापार है वह प्राग-पहले नहीं होकर वर्तमान में होता हुआ पुनः नष्ट होता हुआ अनित्यपने को आत्मसात् करता हुआ भेद के ज्ञान का विषय है इसलिए उस द्विजपुरुष से वह याग लक्षण व्यापार भिन्न ही है क्योंकि कथंचित्-उत्पाद विनाश की अपेक्षा से विरुद्ध धर्माध्यास देखा जाता है। तथा द्विज से याग लक्षण भिन्न है एवं याग और पचन व्यापार में व्याप्त होकर रहने वाली "करोति" यह क्रिया अनुस्यूतप्रत्यय-अन्वय रूप ज्ञान से वेद्य है--यजन पचन आदि में करोति के अर्थ का सदभाव होने से अनुगत प्रत्यय से जानी जाती है और करोति क्रिया से विपरीत स्वरूप याग से अर्थांतरभूत-भिन्न सर्वथा भी निराकरण नहीं करने योग्य यह करोति क्रिया अनुभव "यजते, यागं करोति देवदत्तः". इस प्रकार से देवदत्त के साथ याग का समानाधिकरण है । यदि. सर्वथा इन दोनों में एकत्व मानोगे तो उसमें विरोध आ जावेगा क्योंकि जैसे वस्त्र औ में एकता है वैसी यहाँ नहीं है किसी ने कहा--किं करोति देवदत्तः ! इस प्रश्न के होने पर "यजते पचति" इस प्रकार से निश्चित हो जाने पर भी यज्यादिकों में संदेह देखा जाता है। तथाहि 1 परमार्थः सन्नेकः इति पाठान्तरम् । 2 नश्यन् । 3 द्विजात्तद्वयापारो यागरूपो भिन्न एव। 4 उत्पादविनाशापेक्षया। 5 द्विजात् । 6 अनित्यत्वलक्षण । 7 द्विजाद्यागलक्षणक्रिया भिन्ना यथा। 8 पचन। 9 अव्यापकव्यापकभेदात् कथंचिद् भेदः। (ब्या० प्र०) 10 यजनपचनादौ करोत्यर्थसद्भावेनानुगतप्रत्ययवेद्या। 11 करोत्यर्थविपरीतात्मकाद्यजनात् करोतीति क्रियान्तिरभूतास्ति । 12 अनिराकरणीया। 13 यागस्तु तद्व्यापारस्ततो देवदत्तादपर एवेति करोतीति क्रिया यागादर्थान्तरभूतेत्यनन्तरोक्तसाध्यद्वये यथाक्रमं यजते यागं करोति देवदत्तः यजतिपचतीत्यादिना च साधनद्वयमुपदर्शयन् यजते इत्याह । 14 देवदत्तस्य करोतेश्च समानाधिकरणता। 15यागस्य। 16 भो बौद्ध । तयोः करोतीतिक्रियायागयोः देवदत्तेन सह सर्वथैकत्वे तत्सामानाधिकरण्यं विरुद्ध येत यथा पटपटस्वरूपयोः सर्वथैक्ये सामानाधिकरण्यं विरुद्ध यते (न तु कथञ्चिदैक्ये)। 17 यागादन्या क्रियेति साधनद्रव्येण स्थापयति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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