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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद L [ १२५ प्रवर्त्तन्ते - 'गौणत्वप्रसङ्गात् । शिलापुत्रकस्य, राहोरित्युच्यमाने हि किमिह सन्देहः । तद्व्यवच्छित शरीरं, शिर इत्यभिधानमन्यस्य कार्यादेर्व्यवच्छेदकमुपपन्नम् ' । तस्मिंश्च' सति कस्येति संशयः स्यात्। तद्व्यपोहनाय शिलापुत्रकस्य राहोरित्यभिधानं श्रेयः—अवस्थातद्वतोः' 'कथञ्चिद्भेदात् । शरीरं हि शिलापुत्रकस्यावस्था 'अवयवोपचयलक्षणावस्थान्तरव्यावृत्ता । शिलापुत्रकः पुनरवस्थाता " - - " खण्डाद्यवस्थान्तरेष्वपि प्रतीतेः । एतेन राहुरवस्थाता शिरोवस्थायाः ख्यात: 13 । .10 [ अवस्थामंतरेणावस्थावान् कश्चिन्नास्ति इति बौद्धेन मन्यमाने भाट्टः प्रत्युत्तरयति ] “सांवृतोऽवस्थाता-–अवस्थाव्यतिरेकेणानुपलब्धेरिति चेन्न - 'उभयात्सत्त्वात् । अवस्था शिलापुत्रक का, राहु का इतना कहने पर 'क्या' इस प्रकार का सन्देह हो जाता है और उस संदेह की व्यवच्छित्ति दूर करने के लिए शरीर, शिर, इस प्रकार का उत्तर रूप कथन होता है, अतः अन्य कार्यादि का व्यवच्छेदक होना सुघटित है अर्थात् अन्य योग का व्यवच्छेद न करने पर संदेह बना ही रहता है और शरीर एवं शिर के कहने पर " किसके हैं" ऐसा संशय होता है । उस संशय को दूर करने के लिए शिलापुत्रक का, राहु का, ऐसा कथन करना भी श्रेयस्कर है क्योंकि अवस्था और अवस्थावान् - शरीर और शरीरवान् में कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है। शरीरवान् तो एक जीव विशेष है और शरीर पुद्गल की पर्याय है, बहुत ही अंतर है । शरीर यह शिलापुत्रक की अवस्था है और वह अवयवों के उपचय - परिपूर्णता लक्षण वाला है एवं अवस्थांतर से व्यावृत्त है- ऊर्ध्व स्थिति खण्ड आदि भिन्न-भिन्न अवस्था से रहित हैं किन्तु शिलापुत्रक स्थितिमान् है और खण्डादि अवस्थांतरों - भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भी प्रतीत होता है । इस कथन से राहु अवस्थावान् है शिर अवस्था है ऐसा कथन सिद्ध हो गया । अर्थात् राहु अवयवी है और शिर आदि उसके अवयव हैं। [ अवस्था को छोड़कर अवस्थावान् कोई चीज नहीं है ऐसी बौद्ध की मान्यता पर भाट्ट के द्वारा समाधान ] बौद्ध - अवस्थावान्-स्थितिमान् काल्पनिक है क्योंकि अवस्था को छोड़कर उसकी उपलब्धि नहीं होती है । भाट्ट - ऐसा नहीं कहना, अन्यथा अवस्था और अवस्थावान् इन दोनों का ही अभाव हो 1 कथञ्चिद्भेदमन्तरेणापि भेदव्यवहाराः प्रवर्त्तन्ते चेत्तदा भेदव्यवहाराणां गौणत्वं स्यात् । 2 औपचारिकं चैतन्नष्टम्तात्त्विकभेदस्यानन्तरं निरूपितत्वात् । 3 किमिति सन्देह इति पाठान्तरम् । 4 अन्ययोगव्यवच्छेदाभावे सन्देहविच्छित्तिर्न स्यात् । 5 शरीरे शिरसि चोच्यमाने सति । 6 शरीरशरीरवतोः । 7 अवस्थापेक्षया । 8 सर्वावयवसम्पूर्णता । 9 ऊर्ध्वस्थितिखण्डादि । 10 स्थितिमान् । 11 ऊर्ध्वस्थितिखण्डादि । 12 व्याख्यात इत्यपि पाठः । 13 व्याख्यातः इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 (बौद्ध) कल्पितः । 15 अवस्थावस्थावतो: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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