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________________ १२४ ) अष्टसहस्री [ कारिका ३[पुनरपि बौद्धो भेदकल्पनायामनवस्थां दर्शयति भाट्टश्च निराकरोति] 'अथ यजते यागं करोति यागक्रियां करोतीत्येवमनवस्थोच्यतेतर्हि स्वरूपं संवेदयते स्वरूपसंवेदनं संवेदयते इत्यप्यनवस्था' स्यात् । अथ स्वरूपं संवेदयते इत्यनेनैव स्वरूपसंवेदनप्रतिपत्तेः स्वरूपसंवेदनं संवेदयते इत्यादि निरर्थकत्वादयुक्तं तर्हि यागं करोतीत्यनेनैव 'यागावच्छिनक्रियाप्रतिपत्तेोगक्रियां करोतीत्यादिवचनमनर्थकमेव व्यवच्छेद्याभावात् । यजते इत्यनेनैव यागावच्छिन्नक्रियाप्रतीतेर्यागं करोतीत्यपि वचनमनर्थकमिति चेत्सत्यं10 यदि तद्वचनादेव तथा प्रत्येति । यस्तु न प्रत्येति तं प्रति विशेषणविशेष्यभेदकथनपरत्वात् तथाभिधानस्य नानर्थक्यम् । शिलापुत्रकस्य' शरीरं राहोः शिर इत्यादिभेदव्यवहारा अपि न कथञ्चिद्भदमन्तरेण [ पुनरपि बौद्ध भेद कल्पना के मानने में अनवस्था दोष देता है, भाट्ट उसका परिहार करता है ] प्रज्ञाकर बौद्ध-"यजते, यागं करोति, यागक्रियां करोति", इस प्रकार से अनवस्था दोष आता ही है। भाट्ट-तब तो आपके यहाँ "स्वरूपं संवेदयते"-स्वरूप का संवेदन करता है। स्वरूपसंवेदनं संवेदयते-स्वरूप संवेदन का संवेदन करता है । इस कथन में भी अनवस्था हो जावेगी। यदि आप कहें कि "स्वरूपं वेदयते" इस कथन से ही स्वरूप संवेदन का ज्ञान हो जाने से "स्वरूपसंवेदनं संवेदयते" इत्यादि वाक्य निरर्थक हैं अतः अयुक्त हैं । तब तो "यागं करोति" इस वाक्य से ही यागावच्छिन्न क्रिया-यज्ञ से सहित क्रिया का ज्ञान हो जाने से "यागक्रियां करोति" इत्यादि वचन अनर्थक ही हैं, क्योंकि परिहार करने योग्य का अभाव है। बौद्ध-पुन: “यजते" इस पद से ही यागावच्छिन्न-यज्ञ से सहित क्रिया की प्रतीति होने से "यागं करोति" यह वचन भी अनर्थक हो जावेगा? भाट्ट-आपका कहना सत्य है यदि उस 'यजते', वचन से ही वैसा ज्ञान हो जाता है तो वे 'यागं करोति' वचन व्यर्थ ही हैं किन्तु जो उतने मात्र से नहीं समझता है उसके लिए विशेषण, विशेष्य भेद को कहने वाले वाक्य प्रयुक्त किये जाते हैं इसलिए वैसा कथन अनर्थक नहीं है यह शिलापुत्रक का शरीर है, यह राहु का शिर है इत्यादि भेद व्यवहार भी कथंचित् भेद के बिना नहीं होते हैं अन्यथा इन्हें गौणपने का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् कथंचित् भेद के बिना भी यदि भेद व्यवहार प्रवृत्त होते हैं तब तो भेद व्यवहार गौण हो जावेंगे, किन्तु इनको औपचारिक-गौण तो माना नहीं है क्योंकि भेद वास्तविक है इसका आगे ही वर्णन किया है। 1 प्रज्ञाकरः। 2 यदि त्वया सौगतेनेति शेषः। 3 भट्टः। 4 कत। 5 सौगतस्येति शेषः। 6 भट्टः। 7 विशिष्ट । (ब्या० प्र०) 8 परिहार्य । 9 विशेषितुं योग्यस्य । (ब्या० प्र०) 10 भट्टः । 11 केतोः ग्रहस्य । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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