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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १२३ "यजतेपचतीत्यत्र भावनाया:1 प्रतीतितः । यजाद्यर्थातिरेकेण युक्ता वाक्यार्थता ततः॥ पाकं करोति यागं चेत्येवं भेदेऽवभासिते । काऽनवस्था भवेतत्र तत्प्रतीत्यनुसारिणाम्" ॥ यजते यागं करोतीति हि यथा 'प्रतिपत्तिस्तथा स्वव्यापारं निष्पादयतीत्यपि सैव प्रतिपत्तिः-स्वव्यापारशब्देन यागस्याभिधानात्-निष्पादयतीत्यनेन तु करोतीति प्रतीतेः । यागं करोति स्वव्यापारं निष्पादयतीति नार्थभेदः । यागनिष्पत्ति निर्वर्त्तयतीत्यत्रापि यागनिपत्तिर्याग एव । निवर्त्तनं करणमेव । ततो यागं करोतीति प्रतीतं स्यात् । ततो नैते व्यपदेशा' यथाकथञ्चिद्भदपरिकल्पनपुरस्सराः-प्रतीयमानकरीत्यर्थविषयत्वात् । यागं करोति विदधात्येवमादिव्यपदेशवत् । ततो युक्तैवैतेभ्यः' पदार्थतत्त्वव्यवस्था अनवस्थानवतारात् । समानाधिकरण होने से देवदत्त रूप से ज्ञान होता है" ॥२॥ अर्थात् देवदत्त के द्वारा ही वह क्रिया प्राप्त की जाती है। ___ भाट्ट-यह सब आप प्रज्ञाकर बौद्ध का कथन भी परीक्षा को सहन करने में समर्थ नहीं है क्योंकि श्लोकार्थ-"यजते, पचति" यहाँ पर भावना की प्रतीति होने से यज्ञादि अर्थ से अतिरिक्तभिन्न वाक्यार्थता युक्त है। श्लोकार्थ-पाकं करोति, यागं च, इस प्रकार से भेद के अवभासित होने पर उस प्रतीति का अनुसरण-अनुभव करने वालों को अनवस्था कैसे आयेगी ? जिस प्रकार से “यजते पाकं करोति" यज्ञ करता है, पाक को करता है इत्यादि ज्ञान होता है उसी प्रकार से अपने व्यापार को निष्पादित करता है इस प्रकार से भी उसी का ज्ञान होता है, क्योंकि "स्व व्यापार" शब्द से यज्ञ का कथन किया जाता है और "निष्पादयति" इस शब्द से करोति इस क्रिया की प्रतीति होती है। यागं करोति, स्वव्यापारं निष्पादयति-यज्ञ को करता है, अपने व्यापार को निष्पादित करता है इसमें अर्थ भेद नहीं है । “यागनिष्पत्ति निर्वर्तयति" इसमें भी याग निष्पत्ति का अर्थ याग ही है और निर्वर्तन का अर्थ करना ही है। इसलिए इसमें यागं करोति ऐसा ज्ञान होता है अतः इनमें एकार्थता होने से ये व्यपदेश-शब्द यथा कथचित्-अर्थ भेद के बिना भेद की कल्पना पुरस्सर-पूर्वक होते हैं क्योंकि प्रतीति में आते हुए करोत्यर्थ के विषय हैं। जैसे यागं करोति, विदधाति, इत्यादि व्यपदेश-शब्द भेद के बिना ही होते हैं इसलिए "यागं करोति, स्वव्यापारं निष्पादयति, यागनिष्पत्ति निर्वर्तयति" इन वचन व्यवहारों से पदार्थ-तत्त्व-भावनातत्त्व की वास्तविक व्यवस्था होती है। अनवस्था दोष नहीं आता है अर्थात् ये सभी वचन भेद, "करोति" क्रिया रूप अर्थ भावना की ही व्यवस्था करते हैं। 1 करोति क्रियारूपाया: । (ब्या० प्र०) 2 प्रतीतिरस्ति यतः । (ब्या० प्र०) 3 व्यपदेशानाम् । 4 प्रतीतिस्तथा इति पा० । (ब्या० प्र०) 5 एकार्थता यतः। 6 अर्थं विना। 7 यागं करोति स्वव्यापारं निष्पादयति यागं निर्वतयतीत्येतेभ्यो वाग्व्यवहारेभ्यः (भट्टः संविदद्वैतवादिनं प्रत्याह)। 8 एते व्यपदेशभेदाः सर्वेपि करोतिक्रियारूपार्थभावनामेव व्यवस्थापयन्ति-अर्थभेदेनाऽनवस्थाभावादिति भावः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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