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________________ ११६ ] अष्टसहस्री । कारिका ३ अस्माभिः गुरुः सेव्यते-हम सभी के द्वारा गुरु की सेवा की जाती है । देवदत्तेन कटौ क्रियेते-देवदत्त के द्वारा दो चटाई बनाई जाती हैं। मया न्यायव्याकरणसिद्धांतशास्त्राणि पठ्यंते-मेरे द्वारा न्याय, व्याकरण और सिद्धांत शास्त्र पढ़े जाते हैं। इन वाक्यों के प्रयोग में कर्म प्रधान है और कर्ता अप्रधान है अत: कर्ता में तृतीया हो जाती है और कर्म में प्रथमा ही रहती है। तथा कर्म के एकवचन, द्विवचन और बहुवचन के अनुसार ही क्रिया में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन हो जाते हैं। अकर्मक क्रियाओं के भाव प्रयोग के उदाहरणदेवदत्तेन शय्यते--देवदत्त के द्वारा सोया जाता है। आवाभ्यां आस्यते-हम दोनों के द्वारा बैठा जाता है । जंतुभिः जन्यते- बहुत से प्राणियों के द्वारा जन्म लिया जाता है। इन अकर्मक धातुओं के भाव प्रयोग में कर्ता में तृतीया होती है एवं भाव के अर्थ में धात्वर्थ क्रिया में एकवचन ही रहता है। इन वाक्यों के प्रयोग में कर्ता अप्रधान है और धात्वर्थ क्रिया ही प्रधान है क्योंकि यहाँ कर्म का अभाव है। । यहाँ पर भाट्ट का ऐसा कहना है कि प्रज्ञाकर बौद्ध ने अपने ग्रन्थों में जो ऐसा कहा है कि यदि शब्दभावना रूप नियोग ही वेदवाक्य का अर्थ है-"देवदत्त पकाता है" ऐया वाक्य यदि शब्दभावना रूप नियोग का ही प्रतिपादन करता है तब कर्ता अनुक्त नहीं कहा जाता है। "पकाता है" यह क्रिया अपने कर्ता का प्रतिपादन नहीं करती है क्योंकि वह क्रिया तो नियोग अर्थ का प्रतिपादन करती है और जब कर्ता अप्रधान है तब यहाँ पर कर्ता में तृतीया होनी चाहिए थी किन्तु यहाँ कर्ता का कथन होने से तृतीया नहीं हुई है। इस पर भाट्ट का कहना है कि यह सब आपका कथन अयुक्त है क्योंकि हमने अर्थभावना रूप विशेषण के द्वारा कर्ता का प्रतिपादन कर ही दिया है एवं करोति क्रिया का जो अर्थ है वही भावना है वह भावना देवदत्त कर्ता रूप से ही प्रतिभासित होती है। अर्थभावना तो विशेषण है और कर्ता देवदत्त विशेष्य है एवं विशेषण विशेष्य का ज्ञान एक साथ होता है क्रम से नहीं होता है इसलिए कारक के भेद से उसके व्यापार रूप क्रिया में भेद ही होवे ऐसा एकांत नहीं है। "देवदत्त और यज्ञदत्त इन दोनों के द्वारा एक चटाई बनाई जाती है" इसमें कर्मणि प्रयोग में कर्ता अप्रधान होने से उसमें तृतीया का द्विवचन है किन्तु कर्म रूप चटाई प्रधान है और उसमें एक वचन होने से "क्रियते" क्रिया में एकवचन ही है । ___ इसलिए कर्मणि प्रयोग में कर्म के अनुसार ही क्रिया होती है तथा इसी का कर्तरि प्रयोग करने पर देवदत्तयज्ञदतो कटं कुरुत:-देवदत्त और यज्ञदत्त चटाई को बनाते हैं यहाँ कर्ता की प्रधानता से क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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