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________________ भावनावाद 1 श्लोक - क्रियापदं कर्तृपदेन युक्तं प्रथम परिच्छेद व्यपेक्षते यत्र किमित्यपेक्षां । सकर्मकं तं सुधियो वदांत, शेषस्ततो धातुरकर्मकः स्यात् ॥१॥ सन्मात्र भावलिंगं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः । धात्वर्थः केवलः शुद्धो भाव इत्यभिधीयते ॥२॥ अर्थ- जो कर्त्तापद से युक्त क्रियापद " क्या" इस प्रकार के कर्म की अपेक्षा रखते हैं विद्वान् जन उन क्रियापदों को सकमर्क कहते हैं एवं उनसे बची हुई धातुयें अकर्मक कही जाती हैं । ॥१॥ जो सन्मात्र रूप भावलिङ्ग है, कारकों के सम्बन्ध से रहित है, केवल शुद्ध धात्वर्थ है उसे भाव वाची कहते हैं ॥२॥ यहाँ वे धातु लज्जा, सत्ता, स्थिति, जागरण, वृद्धि, क्षय, भय, जीवन, मरण, शयन, क्रीडा, रुचि और दीप्ति अर्थ वाले धातु अकर्मक कहलाते हैं क्योंकि इनमें कर्म की अपेक्षा नहीं है । इन सकर्मक और अकर्मक धातुओं में विभक्ति के लग जाने से ये तिड़ंत अथवा भिड़ंत कहलाते हैं एवं दस प्रकार से लकारों से प्रयुक्त किए जाते हैं । सकर्मक क्रियायें भी कर्तरि प्रयोग और कर्मणि प्रयोग से दो प्रकार मानी गयी हैं एवं अकर्मक क्रियायें कर्तृ र प्रयोग और भाव प्रयोग के भेद से दो प्रकार की होती हैं सकर्मक क्रियाओं के कर्तरि प्रयोग के उदाहरण अहं जिनालयं गच्छामि - मैं जिनालय को जाता हूँ । आवां अष्टसहस्त्रीमध्येवः - हम दो जने अष्टसहस्री का अध्ययन करते हैं । सर्वे जिनपूजां कुर्वंति - सभी जिन पूजा करते हैं । देवदत्तः ओदनं पचति देवदत्त भात को पकाता है । [ ११५ इन वाक्यों में जाने वाला, पढ़ने वाला और पकाने वाला कर्त्ता प्रधान - स्वतंत्र है अत: इन वाक्यों को कर्त्तरि प्रयोग कहते हैं। इन वाक्यों में कर्त्ता के अनुसार एकवचन, द्विवचन, और बहुवचन रूप क्रिया हो जाती हैं । अकर्मक धातुओं के कर्तरि प्रयोग के उदाहरण सः शेते—वह सोता है । जंबूद्वीपे सूर्यो प्रकाशेते - जम्बूद्वीप में दो सूर्य चमकते हैं । वृक्षाः वर्धते-अनेक वृक्ष बढ़ते हैं । Jain Education International इन अकर्मक धातुओं में कर्म है ही नहीं, अतः क्रिया का सभी भार कर्त्ता पर ही है । सोने वाले, प्रकाशित होने वाले एवं बढ़ने वाले कर्त्ता सर्वतः प्रधान हैं अतः ये वाक्य अकर्मक कर्त्तृ प्रयोग हैं इनमें भी कर्त्ता के अनुसार ही क्रिया एकवचन, द्विवचन बहुवचन रूप हो जाती है । सकर्मक धातुओं से कर्मणि प्रयोग के उदाहरण देवदत्तेन अष्टसहस्री पठपते - देवदत्त के द्वारा अष्टसहस्री पढ़ी जाती है । मया व्याकरणं पठ्यते - मेरे द्वारा व्याकरण पढ़ी जाती है । युवाभ्यां जिनपूजा क्रियते -तुम दोनों के द्वारा जिन पूजा की जाती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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