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________________ भावनावाद । प्रथम परिच्छेद [ ११७ [ शब्दभावनारूपनियगोऽर्थभावनाया विशेषणमस्य विचारः । स्यादाकूतम् ।सम्बन्धाद्यदि तद्भेदो' धात्वर्थस्याप्यसौ भवेत् । सोपि 'निर्वर्त्य एवेति 'तभेदेनैव भिद्यताम् ॥ 10अस्माकं तु !11 विवक्षापरतन्त्रत्वाद्भेदाभेद 12व्यवस्थितेः । 13 लाभिधानात्कारकस्य14 सर्वमेतत्समञ्जसम् ॥ में भी द्विवचन हो जाते हैं। किन्तु बौद्ध का यदि ऐसा कहना है कि कर्ता के भेद से क्रिया में भेद होवे ही होवे सो ठीक नहीं है। क्योंकि अकर्मक धातु से कर्त्ता में भेद होने पर भी धात्वर्थ शुद्ध क्रिया में एकवचन ही रहता है एवं प्रत्यय का अर्थ नियोग माना गया है अतः धातु का अर्थ नियोग नहीं है और धात्वर्थ शुद्ध है कारक के भेद से भी उसमें भेद नहीं होता है उसमें केवल सर्वत्र एकवचन का ही प्रयोग होता है ऐसा समझना चाहिये। [शब्दभावना रूप नियोग अर्थभावना का विशेषण है इस पर विचार] श्लोकार्थ-योगाचार बौद्ध कहता है कि-यदि सम्बन्ध से उस प्रत्यय रूप नियोग में कर्ता सम्बन्धी कारक के भेद से भेद है तो पुन: "आस्यते" इस सत्ता रूप धात्वर्थ में भी प्रत्यय भेद होवे । वह भी पुरुष के द्वारा ही निर्वर्त्य-निष्पाद्य है उस कारक-कर्ता के भेद से ही उसमें भेद हो जावे ।। अर्थात् "जिनदत्तगुरुदत्तयज्ञदत्तैरास्यते" जिनदत्त, गुरुदत्त और यज्ञदत्त के द्वारा बैठा जाता है। प्रक्रिया में एकवचन ही होता है किन्त अर्थ के भेद से भाव रूप धात के अर्थ में भेद नहीं होता है। इस प्रकार से जो आरोप है कि यदि कारक के भेद से प्रत्यय में भेद है तो यहाँ भी आस्यते क्रिया में बहुवचन होना चाहिए किन्तु हम लोगों के यहाँ तो श्लोक.र्थ-विवक्षा-कल्पना के आधीन होने से कारक व्यापार में भेदाभेद की व्यवस्था है। दस लकार के कथन से कारक में-प्रत्यय रूप नियोग में भेद और अभेद होते हैं इसलिए एकवचनादिक सभी समंजस-ठीक ही हैं । भाव में उत्पन्न हुई लकार नाम की क्रिया कर्ता और कर्म से भेद रूप से ही विवक्षित की गई है जब वह क्रिया लकार इत्यादि प्रत्यय से कही जाती है तब वह कर्ता नहीं है तब कर्ता के अप्रधान 1 योगाचारस्य। 2 तस्य प्रत्ययरूपनियोगस्य । 3 क सम्बन्धात्कारकभेदाद्यदि प्रत्ययभेदस्तदा। 4 सत्तारूपस्य आस्यते इत्यस्य । 5 प्रत्ययभेदः। 6 भावरूपस्य देवदत्तजिनदत्तयज्ञदत्तरास्यते एतदेकमेव भवति नार्थभेदाद् भावरूपस्य धात्वर्थस्य भेदः । (ब्या० प्र०) 7 पुरुषेण निष्पाद्यः। 8 हेतोः। 9 कारक । कत । प्रत्यय। 10 योगाचाराणाम् (सौगतानाम्)। 11 कल्पना। 12 व्यापारस्य कारकस्य। 13 दशलकारेण । 14 प्रत्ययरूपनियोगस्य भेदाभेदी भवतः। 15 एकवचनादिकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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