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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद कत्तु : प्रतिपादनात् । 'भावना हि करोत्यर्थः । स च देवदत्तकर्तृकः प्रतिभाति । पचेद् देवदत्तः पाकं कुर्यादिति पाकावच्छिन्नायाः करणक्रियाया देवदत्तकर्तृकायाः प्रतीते:-सकृदेव विशेषणविशेष्ययोः प्रतिभासाविरोधात् नीलोत्पलादिवत् । ततो नेदं प्रज्ञाकरवचश्चारु । "क्रिमप्रतीतेरेवं स्यात् प्रथमं भावनागतिः । तत्सामर्थ्यात्पुन': पश्चाद्यत: कर्ता प्रतीयते ॥" इति यदभ्यधायि10 11द्विवचन बहुवचने च प्राप्नुतः—एकत्वाद्व्यापारस्य। 15अथ कारक न होने से लिङ्ग के द्वारा ही कर्ता को कह देने से तृतीया नहीं होती है अर्थात् 'देवदत्त: पचेत्" देवदत्त पकाता है यह वाक्य यदि शब्द भावना रूप नियोग का प्रतिपादन करता है तब कर्ता अमुक्त है। "पचेत्" पकाता है यह क्रिया कर्ता का प्रतिपादन नहीं करती है क्योंकि यह क्रिया नियोग के प्रतिपादन करने में तत्पर है एवं अभिहित अधिकार के न होने से तृतीया होती है किन्तु कर्ता के अभिहित-कथन कर देने पर तृतीया नहीं होती है क्योंकि तिङ् प्रत्यय के द्वारा ही कथन हो जाता है। यह सब आपका कथन भी अयुक्त ही है । अर्थ भावना रूप विशेषण से कर्ता का प्रतिपादन किया गया है क्योंकि "करोत्यर्थ" ही भावना का लक्षण है और करोति क्रिया का अर्थ देवदत्त कर्ता रूप प्रतिभासित होता है। "पचेत् देवदत्तः=पाकं कुर्यात्" इस प्रकार से पाक से अवच्छिन्न देवदत्त कर्तृक, करण, क्रिया की प्रतीति हो रही है क्योंकि युगपत् ही विशेष्य का प्रतिभास विरूद्ध नहीं है जैसे कि नीलोत्पल में नील विशेषण और कमल विशेष्य एक साथ ही अनुभव में आते हैं। इसलिए आप प्रज्ञाकर बौद्ध के ये वचन चारु-सुन्दर नहीं हैं अर्थात् विशेषण और विशेष्य की युगपत प्रतीति होती है कहा भी है श्लोकार्थ-इस प्रकार क्रम से प्रतीति होने से पहले भावना का ज्ञान होता है पुनः उसकी सामर्थ्य से कर्ता और भावना में विशेषण विशेष्य भाव के प्रकार से पश्चात्-बाद में कर्ता प्रतीति में आता है। ऐसा तो आप सौगत ने कहा है कि क्रिया लक्षण भावना में द्विवचन और बहुवचन नहीं प्राप्त होता है क्योंकि भाट्ट की स्वीकृति अनुसार व्यापार एक है यह आप सौगत का कथन भी असत्य ही है। 1 भावनायाः किं लक्षणमित्युक्ते आह । 2 करोत्यर्थः । 3 यदि भावनाविशेषणत्वेन कर्ता तथापि तयोः क्रमप्रतीतिसम्भवेन पूर्वकर्तुः प्रतिभासाभावात्तृतीया प्राप्नोतीत्याशङ्कायामाह । 4 भट्टो वदति ।-यत एवं तत इदमतनकारिकादो वक्ष्यमाणं सौगतवचनं मनोज्ञं न स्यात् । 5 क्रमप्रतीतिरेवं स्यादिति खपुस्तकपाठः। 6 कर्तृभावनयोविशेषणविशेष्यभावप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 7 कर्तृभावनयोविशेषणविशेष्यभावप्रकारेण । स्युरेवंतुपुनरेवेत्यवधारणवाचका इति वचनात् । 8 वाक्यात् । (ब्या० प्र०) 9 भक्दभ्युपगमप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 10 भट्टो वदति । यदवादि सौगतेन तदप्यसत्यमितिपर्यन्तं सम्बन्धः। 11 क्रियालक्षणाया भावनायाः। 12 पचेतां। (ब्या० प्र०) 13 च न प्राप्तुतः इति पा०। तच्छद्धं प्रतिभाति । (ब्या० प्र०) 14 पुरुषसंबंधिक्रियारूपकरणलक्षणस्य भादृस्याभ्युपगमप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 15 यदि । (ब्या० प्र०) 16 कादि । (व्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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