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अष्टसहस्री
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न विवक्षारूढ एव शब्दस्यार्थः प्रमाणबलादवलम्बितुं युक्तः सन्मात्रविधिवत् ।
[ कारकभेदेन क्रियायाः भेदाभेदविचारः ]
यदप्युक्तम् । - - नियोगो यदि शब्दभावनारूपो वाक्यार्थस्तथा सति देवदत्तः पचेदिति
कर्तुरनभिधानात्कर्तृ करणयो' स्तृतीयेति 'तृतीया भिहिताधिकारात्तिङव' चोक्तत्वान्न' "भवतीति ।
प्राप्नोति' । कर्त्तुरभिधाने त्वन"तदप्ययुक्तं 12-13 भावनाविशेषणत्वेन
[ कारिका ३
पदार्थों की प्रतीति होती है उसके समान ही शब्द से बाह्य अर्थ का ज्ञान सिद्ध है क्योंकि प्रयोज्य और प्रयोजक- पुरुष एवं शब्द की प्रतीति सत्य ही है इसलिए विवक्षा में आरूढ़ ज्ञान में प्रतिभासित होना ही शब्द का अर्थ है ऐसा प्रमाण के बल से अवलंबन - स्वीकार करना युक्त नहीं है जैसे कि वेदवाक्य का अर्थ सन्मात्र विधि है यह कथन ठीक नहीं है ।
भावार्थ- जब भाट्ट ने प्रत्यक्ष के विषय को निरालंब - शून्य सिद्ध किया तब तो विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध को अवकाश मिल गया और उसने कहा कि वास्तव में प्रत्यक्ष भी प्रवर्तक नहीं है क्योंकि "स्वरूप का ज्ञान स्वयं ही होता है" अतएव बाह्य पदार्थ कोई चीज ही नहीं है केवल ज्ञानमात्र ही तत्त्व है । इस पर भाट्ट ने कहा कि फिर आप वेदांतियों के ब्रह्माद्वैत को भी मानों । यदि कहो नित्य, एक परम पुरुष दिखता नहीं है तन क्या निरंश, क्षणिक एक रूप ज्ञान किसी को दिखता है ? अतः सौगत के द्वारा मान्य सर्वथा भेदवाद भी गलत ही है। मतलब दृश्य जल और प्राप्य पीने के लिए जल का ग्रहण आदि रूप भविष्यत् में होने वाली अर्थक्रिया ये दोनों यदि सर्वथा भिन्न हैं फिर जो शब्द से जल को सुनकर जल को देखेगा वही मनुष्य उस जल को पीने, लाने या उसमें नहाने की प्रवृत्ति नहीं कर सकेगा । अतः यह स्नानपानादि अर्थक्रिया शब्द से यज्ञ कार्य रूप व्यापार में है, व्यक्तस्पष्ट रूप से भविष्य में होने वाली है फिर भी शक्ति रूप से पुरुष से अभिन्न है और शब्द के ज्ञान में झलक रही है फिर भी नियोग निष्फल नहीं है ।
[ कारकों के भेद से क्रिया में भेदाभेद का विचार ]
और जो आपने कहा है कि शब्द भावना रूप नियोग वेदवाक्य का अर्थ है ऐसा होने पर तो "देवदत्तः पचेत्” इस प्रकार से कर्ता का कथन नहीं होने से अप्रधान कर्ता और करण में तृतीया होती है इस कथन से तृतीया विभक्ति प्राप्त होती है एवं कर्ता का कथन करने में अभिहित का अधिकार
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1 भाट्टो वदति । ( प्रज्ञाकरेण स्वग्रन्थे ) 2 शब्दभावनारूपस्य नियोगस्य । ( व्या० प्र० ) 3 देवदत्तः पचेदिति वाक्यं यदि शब्दभावना रूपं नियोगं प्रतिपादयति तदा कर्ता अनुक्तो भवति । पचेदिति क्रिया कर्तारं न प्रतिपादयति नियोगप्रतिपादनपरत्वात्तस्याः । ( ब्या० प्र० ) 4 अप्रधानयोः । 5 विभक्ति । 6 अनभिहिताधिकारात्तृतीया भवति अभिहिते कर्तरि तृतीया न भवति तिङोक्तत्वात् । (ब्या० प्र० ) 7 अनभिहिते कर्तरि । ( ब्या० प्र० ) 8 पचेदिति । ( व्या० प्र० ) 9 कर्त्तु : 110 तृतीया । 11 भाट्टः । 12 नियोगस्य तच्छेषत्वादप्रधानत्वादवाक्यार्थत्वमिति वक्ष्यमाणप्रकारेणस्य मुख्यवृत्त्यावाक्या र्थत्वाभावं मन्वानस्तत्रोक्तदोषमपरिहरन्मुख्यवृत्या वाक्यार्थभूतार्थ भावनायामेव तं परिहरन्नाह । उक्तदोषस्य तत्राप्यनुषंगात् । (ब्या० प्र० ) 13 अर्थभावना ।
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