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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
भाविन्या अपि शक्तिरूपेण पुरुषस्य सतः कथञ्चिदभिन्नाया 'शब्दज्ञाने तदैव' प्रतिभासनेपि न नियोगो निष्फल: स्यात् 'प्रत्यक्षतः सलिलादौ प्रवृत्तिवत् । तत्र हि सलिलादेरर्थक्रियायोग्यताप्रतिभासनेपि व्यक्तयर्थक्रियानुभवाभावात्तदर्थप्रवर्तनं प्रतिपत्तुंः सफलतामित्ति नान्यथा । एवं शब्दादात्मन:10 'कार्यव्याप्ततायोग्यताप्रतिपत्तावपि व्यक्तकार्यव्याप्ततानुभवाभावात् 'पुरुषस्य 'नियोगः सफलतामियात्-तथा प्रतीतेरेव चाध्यक्षत्वसिद्धः । ततो
सर्वथा भेद रूप क्षणिक वस्तु को अथवा सर्वथा अभेद रूप नित्य वस्तु को सांवृत्त-काल्पनिक मानने पर उसमें सर्वथा ही अर्थक्रिया का विरोध आता है । अर्थात् द्रव्यवादी सांख्य भेद को कल्पित मानता है और पर्यायवाची बौद्ध अभेद को कल्पित कहता है। इन दोनों को कल्पित रूप मानने पर वस्तु में सर्वथा ही अर्थक्रिया घटित नहीं होती है और भेदाभेदात्मक रूप से वस्तु को सिद्धि हो जाने पर उसी प्रकार वह अर्थ क्रिया शब्द से कार्य में व्याप्त है। व्यक्ति रूप से भाविनी-भविष्य में होने वाली होते हुए भी शक्ति रूप से विद्यमान पुरुष से कथंचित् अभिन्न ही है । वह अर्थक्रिया (यज्ञ) शब्द ज्ञान में “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्यादि शब्दोच्चारण के काल में प्रतिभासित होने पर भी नियोग निष्फल नहीं हो सकता है, जैसे प्रत्यक्ष से जलादि में प्रवृत्ति निष्फल नहीं है उसी प्रकार शब्द से नियोग भी निष्फल नहीं है।
उस प्रत्यक्ष में जलादि की अर्थक्रिया की योग्यता-सामर्थ्य का प्रतिभास न होने पर भी व्यक्ति रूप अर्थक्रिया का अनुभव नहीं है अतएव उस व्यक्ति रूप अर्थक्रिया की प्रवृत्ति के लिये उस विषय में प्रवृत्त होना मनुष्य का सफलीभूत ही रहता है अन्यथा-प्रवृत्ति के बिना अर्थक्रिया का अनुभव नहीं हो सकता है। अर्थात् प्रत्यक्ष से जल देखा, उस समय उस जल में स्नान पान आदि की योग्यता है यह बात शक्ति रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान में झलक गयी पुन: स्पष्टतया स्नान पान आदि अर्थक्रिया तो आगे होती है अत: स्नान पानादि की प्रवृत्ति के लिये उस प्रत्यक्ष ज्ञान से गृहीत जल में स्नानादि से प्रवृत्ति करता है क्योंकि प्रवृत्ति किये बिना अर्थकिया का अनुभव नहीं होता है अतः प्रत्यक्ष ज्ञान सफलीभूत है।
इसी प्रकार शब्द से पुरुष की याग लक्षण कार्य-व्यापार की योग्यता के जान लेने पर भी व्यक्तप्रकट रूप याग लक्षण कार्य रूप व्यापार का अनुभव नहीं होने से पुरुष का नियोग सफल ही है क्योंकि उस प्रकार से प्रतीति भी होती है और वह प्रत्यक्ष से भी सिद्ध है अतः जैसे प्रत्यक्ष से बाह्य
1 स्वतः इति पाठान्तरम् । 2 शब्दज्ञाने इति पा०। (ब्या० प्र०) 3 स्वर्गकामोग्निहोत्रं जुहुयादित्यादिवाक्योच्चारणकाले। 4 यथा प्रत्यक्षाज्जलादौ प्रवृत्तिनिष्फला न स्यात्तथा शब्दान्नियोगो निष्फलो न स्यात् । 5 प्रत्यक्षे । 6 सामर्थ्य। 7 तदर्थ प्रवर्तनं । (ब्या० प्र०) 8 प्रवर्तनमन्तरेणार्थक्रियानुभवो न स्यात् । व्यक्तार्थक्रियानुभवे सति जलक्रियार्थं प्रवर्तनं पुरुषस्य सफलतां न प्राप्नोति। 9 प्रत्यक्षप्रकारेण (भाट्ट )। 10 पुरुषस्य । 11 यागलक्षण । 12 यागलक्षण। 13 पुरुषस्य तदथों नियोगः इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 कर्तु भूतः। 15 प्रतीतेरेवाऽबाध्यत्वसिद्धेरिति पाठान्तरम् । 16 प्रत्यक्षादिव शब्दाबहिरर्थप्रतिपत्तिसिद्धिर्यतःप्रयोज्यप्रयोजकप्रतीतिश्च सत्या प्रतिपादिता
यतः।
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