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[ कारिका ३
कुतो न सिद्धि: ? तस्य नित्यसर्वगतस्यैकस्य' 'संवित्त्यभावादिति चेत् क्षणिकनिरंशस्यैकस्य संवित्तिः किं कस्यचित्कदाचिदस्ति ? यतस्तत्सिद्धिरेव स्यात् । ततः पुरुषाद्वैतवत्संवेदनाद्वैतस्य सर्वथा व्यवस्थापयितुमशक्तेर्भेदवादे' च प्रत्यक्षस्य 'प्रवर्त्तकत्वायोगादुभिन्नाभिन्नात्मकं वस्तु प्रातीतिकमभ्युपगन्तव्यम्' "विरोधादेश्चित्रज्ञानेनोत्सारितत्वात् । भेदस्याभेदस्य 12 वा "सांवृतत्वे सर्वथार्थक्रियाविरोधात् । तथा 14 च शब्दात्कार्यव्यापृतताया " व्यक्तिरूपेण
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अष्टसहस्री
भाट्ट - ऐसा कहो तो पुरुषाद्वंत की सिद्धि भी क्यों नहीं हो जावेगी ? बौद्ध - उस नित्य, सर्वगत, एक स्वरूप परम पुरुष का ज्ञान ही नहीं होता है ।
भाट्ट- यदि ऐसा कहो तब तो क्षणिक, निरंश, एक ज्ञानाद्वैत रूप का संवेदन -- ज्ञान किसी कदाचित् हुआ है क्या ? जिससे कि उसकी ही सिद्धि हो सके अर्थात् वह संवेदनाद्वैत भी असिद्ध ही है ।
इसलिए पुरुषाद्वैत के समान संवेदनाद्वैत की व्यवस्था करना सर्वथा अशक्य है एवं सर्वथा भेदवाद में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति का अभाव है क्योंकि प्रवर्तकत्व का अर्थ ही अपने विषय को दिखला देना है | अतः आप सौगत को भिन्नाभिन्नात्मक ही वस्तु प्रतीति में आती हुई माननी चाहिये । अर्थात् भिन्नाभिन्नात्मक वस्तु को मानने का कथन भाट्ट जैनमत का आश्रय लेकर कह रहा है ।
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दृश्य और प्राप्य रूप आकार से भेद और वस्तु रूप से अभेद मानना चाहिए और उसमें विरोध आदि दोषों का उत्सारण-निवारण चित्र ज्ञान के दृष्टांत से कर ही दिया है अर्थात् एक ही वस्तु भिन्न रूप भी है और अभिन्न रूप भी है इस मान्यता में तो परस्पर विरोध है इत्यादि, इन दोषों का परिहार चित्र ज्ञान को एकानेक सिद्ध करके पहले ही कर दिया है । दृश्य-देखने योग्य जल और प्राप्य - स्नान पानादि से प्रवृत्ति योग्य अर्थ में सर्वथा भेद मानने पर तो हे सौगत ! पूर्व का जल ज्ञान और उत्तर में स्नान, पान आदि प्रवृत्ति रूप ज्ञान में सर्वथा भेद प्रतिपादन करने पर तो पुनः प्रत्यक्ष अपनी प्रवृत्ति के विषय का उपदर्शक - बतलाने वाला भी नहीं हो सकेगा । अतः कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद रूप वाली वस्तु ही स्वीकार करना उचित है ।
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ज्ञानं
1 तत्प्रतीतिर्वास्ति यत: । ( ब्या० प्र० ) 2 प्रतीति । 3 स एव भाट्टः प्राह । ( ब्या० प्र० ) 4 दृश्य प्राप्ययोर्थयोः सर्वथा भेदे । 5 हे सौगत पूर्वजलज्ञानोत्तरस्नानपानप्रवृत्तिज्ञानयोः सर्वथा भेदप्रतिपादने तावत्प्रत्यक्षं प्रवृत्तिविषयोपदर्शकं न स्याद्यतः । 6 प्रवर्तकत्वं नाम स्वविषयोपदर्शकत्वं । ( व्या० प्र० ) 7 दृश्यप्राप्याकारेण भेद वस्तुत्वेनाभेदः । (ब्या० प्र०) 8 जलादि । ( ब्या० प्र० ) 9 भवद्भिः सौगतैः । 10 विरोधादेर्दोषस्य चित्रज्ञानदृष्टान्तेन निराकृतत्वात् । 11 क्षणिकस्य । 12 नित्यस्य । 13 काल्पनिकत्वे सति (असत्यत्वे ) द्रव्यवादी सांख्यो भेदं सङ्कल्पितं मनुते । पर्यायवादी बौद्धोऽभेदं सङ्कल्पितं मनुते । एवमुभयोः कल्पितत्वे वस्तुनः सर्वथापि नार्थक्रिया घटते । 14 भेदाभेदात्मकत्वेन वस्तुनः प्रतीतिसिद्धत्वे च । ( ब्या० प्र० ) 15 अवस्थायाः । ( ब्या० प्र० )
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