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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद बुद्ध यध्यवसितोर्थः किन्न भवति । ततो निरालम्बनमेव प्रत्यक्षं न स्यात् । 'परमार्थतः प्रत्यक्षमपि न प्रवर्तकम् स्वरूपस्य स्वतो गतेः संवेदनाद्वैतस्य वा सिद्धिरिति चेत् पुरुषाद्वैतस्य
समझना और प्राप्य कहने से अर्थक्रिया लेना इन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय है । मतलब दृश्य जल में भविष्य में होने वाली अर्थक्रिया-स्नान पानादि का सद्भाव है।
भाट्ट–यदि आप सौगत ऐसा कहते हैं तब तो शब्द से भी पुरुष का अनागत कार्य-व्यापार उसी एकत्व ज्ञान रूप हेतु से प्रतिभासित ही होता है ऐसा भी आप क्यों नहीं मान लेते हो?
यदि आप कहें कि वैसा होने पर बुद्धि से आरूढ़ अर्थ शब्द का विषय होता है तब तो उसी प्रकार से आपके यहाँ भी प्रत्यक्ष का भी अर्थ बुद्धि से अध्यवसित पदार्थ क्यों नहीं हो जावे क्या बाधा है ? क्योंकि स्नान पान आदि क्रियायें तो भाविनी ही हैं पुनः प्रत्यक्ष भी निरालंबन ही क्यों नहीं हो जावेगा ? अर्थात् प्रत्यक्ष भी निरालंबन रूप ही हो जावेगा।
भावार्थ-बौद्ध कहता है कि "इदं कुरू" यह करो इस वचन से यज्ञ में पुरुष की प्रवृत्ति होना ही नियुक्त होना है एवं यज्ञ कार्य में होने वाली प्रवृत्ति उस वचन से साक्षात् नहीं की जा सकती है यदि भावना या प्रेरणा लक्षण अर्थ का साक्षात्कार करना मानोगे तब तो नियोग का फल क्या रहेगा ? इस पर भाट्ट ने कहा कि ऐसी बाधा तो प्रत्यक्षादि ज्ञान में भी आ सकती है क्योंकि प्रवृत्ति के विषयभूत जलादि को दिखाना ही प्रत्यक्ष का प्रवर्तकपना है और जलादि की अर्थक्रिया-उसमें स्नान पान आदि करना वह तो कार्य और फल भविष्य में होता है। अर्थक्रिया के साधनभूत जल को बतलान वाला प्रत्यक्ष ज्ञान उस भविष्य की स्नान पान आदि अर्थक्रिया को साक्षात नहीं करता है यदि बौद्ध कहें कि भविष्य में होने वाली अर्थक्रिया-कार्य प्रत्यक्ष ज्ञान में झलक रहा है क्योंकि भविष्य के कार्यरूप अर्थक्रिया और प्रत्यक्ष इन दोनों में एकात्व दिख रहा है । तब तो आप बौद्ध ऐसा भी मान लो कि शब्द के द्वारा भविष्य में होने वाला यज्ञ कार्य उस शब्द में झलक रहा है शब्द के बोलने पर प्रतीति में आ रहा है। यदि आप कहें कि ज्ञान में प्रतिभासित अर्थ ही शब्द का विषय है तब तो ज्ञान में झलकते पदार्थ ही प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं ऐसा भी मानों पुन: प्रत्यक्ष ज्ञान निरालंबन हो गया अर्थात् प्रत्यक्ष का विषय कुछ भी पदार्थ नहीं रहा, "मात्र ज्ञान में ही पदार्थ झलक रहे हैं कुछ बाह्य पदार्थ हैं ही नहीं" ऐसी विज्ञानाद्वैत की मान्यता ही सिद्ध हो जावेगी।।
बौद्ध-परमार्थ से प्रत्यक्ष भी प्रवर्तक नहीं है क्योंकि "स्वरूपस्य स्वतो गतेः" ज्ञान की स्वयं ही प्रवृत्ति हो जाती है अथवा संवेदनाद्वैत की स्वयं ही सिद्धि मानी गयी है।
1 स्नानपानादि क्रिया भाविनी यतः । (ब्या० प्र०) 2 यतो इति पा० । (ब्या० प्र०) 3 कुतो न स्यात् ? अपि तु स्यादेव। 4 बौद्धः। 5 ज्ञानस्य स्वस्मादेव प्रवृत्तिर्न तु बहिरर्थात् । 6 भाट्टः ।।
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