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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ शब्दव्यापाररूपेण शब्दभावनैव नियोग इति प्रभाकरेण मन्यमाने सति भाट्टः तन्निराकरोति ] ननु शब्दव्यापाररूपो नियोगः प्रतीयत एव । शब्दो हि स्वव्यापारस्य पुरुषव्यापारकरण लक्षणस्य प्रतिपादको, न पुनः कारकः शब्दादुच्चरितान्नियुक्तोहमनेनेति प्रतिपतृणां प्रतिपत्तेरन्यथानुपपत्तेरिति चेत् तर्हि भावनैव नियोग इति शब्दान्तरेणोक्ता स्यात् । तदुक्तम् ।-- शब्दादुच्चरितादात्मा नियुक्तो गम्यते नरै:11 । भावनात:12 परः को 13वा नियोगः परिकल्प्यताम् ॥ इति । [ गृहीतसंकेतः शब्दोऽर्थ प्रत्यायति अगृहीतसंकेतोवास्य विचारः क्रियते ] 14स्यान्मतम् । -यदि शब्दव्यापारो भावना कथमगृहीतसङ्कतो नैव गच्छति [ "शब्दव्यापारूप शब्दभावना ही नियोग है" ऐसा प्रभाकर के द्वारा मानने पर भाट्ट कहता है कि आपने भावना को ही नियोग नाम धर दिया है वास्तव में भावना ही प्रतीति में आती है। ] प्रभाकर-अग्निहोत्रादि शब्द का व्यापार रूप नियोग ही वेदवाक्य के अर्थरूप से प्रतीति में आता है, क्योंकि शब्द पुरुषव्यापारकरण लक्षण (कार्यरूप व्यापार के प्रति साधकतम लक्षण) अपने व्यापार का प्रतिपादक है-“ऐसा करो" इस प्रकार से शब्द ही ज्ञापक है किन्तु कारक नहीं है। अन्यथा उच्चारण किये गये शब्द से "मैं इस शब्द से नियुक्त हुआ हूँ" इस प्रकार से ज्ञाता पुरुषों को ज्ञान नहीं हो सकेगा। अन्यथा-शब्दोच्चारण के अभाव में "नियुक्तोऽहमनेन" इस प्रकार की प्रतिपत्ताज्ञाताओं को अनुपपत्ति-प्रतीति नहीं होती है। यह “अन्यथानुपपत्ति" का स्पष्टीकरण है। भाट्ट-तब तो भावना ही नियोग है उसी को आपने शब्दांतर-"शब्दभावना" इस भिन्न शब्द से कह दिया है। कहा भी है श्लोकार्थ- उच्चारण किये गये शब्द से आत्मा नियुक्त है ऐसा मनुष्यों के द्वारा जाना जाता है इसलिए शब्दभावना से भिन्न कोई नियोग है ऐसी कल्पना क्यों करना ? अर्थात् नहीं करना चाहिये। [ संकेत ग्रहण किये हुए शब्द अर्थ का ज्ञान कराते हैं या बिना संकेत ग्रहण किये हुए ही शब्द अर्थ का ज्ञान कराते हैं ? इस पर विचार किया जा रहा है । बौद्ध–यदि शब्द के व्यापाररूप भावना है तब तो संकेत को ग्रहण न करने वाला पुरुष 1 प्रभाकरः। 2 अग्निहोत्रादि। 3 वाक्यार्थतया। 4 कृतिरूपव्यापार प्रति साधकतमलक्षणस्येति । 5 ज्ञापकः । एवं विति। 6 शब्देन । 7 अन्यथा शब्दोच्चारणाभावे नियुक्तोहमनेनेति प्रतिपत्त णां प्रतिपत्तिर्नोपपद्यते। 8 भाट्टः। 9 शब्दभावना। 10 स्वरूपम् । 11 अतः। (व्या० प्र०) 12 शब्दभावनातः। 13 न कोपीत्यर्थः। 14 सूगतस्य । 15 प्रेरणा। 16 नावगच्छतीति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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