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________________ १०२ ] अष्टसहस्री ___ [ कारिका ३नियुक्तोहमनेनेति स्वभावतस्तस्य नियोजकत्वात् । सङ्केतग्रहण स्यानुपयोगित्वादिति तदसमीचीनमेव-सङ्कतस्य तथाऽवगतौ' सहकारित्वात्---सामग्री जनिका नैक 'कारणमिति प्रसिद्धः । ननु च सङ्केतसामग्री न "प्रेरणे भावनायां वा व्याप्रियते-12अर्थवेदने तस्याः प्रवृत्तः13--14अर्थप्रतीतौ पुरुषस्य स्वयमेव तत्र तदथितया प्रवृत्तेः । इदं कुर्विति20 "नियुक्तोऽहमनेन" इस प्रकार से क्यों नहीं जानता क्योंकि आपके मत से शब्द तो स्वभाव से ही नियोजक हैं । अतः संकेत का ग्रहण करना अनुपयोगी ही है। भाद्र-आप बौद्धों का जो यह कथन है वह भी समोचीन नहीं है । "इस शब्द का यह अर्थ है" ऐसा संकेत उस प्रकार के ज्ञान में सहकारी कारण है अर्थात् संकेत को ग्रहण करने की शब्द में योग्यता नहीं है क्योंकि संकेत को ग्रहण करने वाला ज्ञान है न कि शब्द । सामग्री कार्य की जनक होती है तथा कोई भी कार्य एक कारण जन्य नहीं है यह बात प्रसिद्ध है । बौद्ध-संकेत लक्षण सामग्री प्रेरणा में-नियोग में अथवा भावना-शब्द और पुरुषरूप भावना में व्यापार नहीं करती है किन्तु अर्थसंवेदन-अर्थ के ज्ञान में उस संकेत सामग्री की प्रवृत्ति है अर्थात् सामग्री अर्थ के ज्ञान में ही प्रवृत्ति करती है किन्तु स्थिर, स्थूल, साधारण आकार रूप बाह्य पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं करती है । यदि संकेत लक्षण सामग्री अर्थ ज्ञान में व्यापार न करे तब तो पुरुष को अर्थ में प्रवृत्ति भी कैसे हो सकेगी, किन्तु जल का ज्ञान होने पर पुरुष उसमें स्नानादि को प्रवृत्ति करता है ऐसा देखा जाता है । अर्थ की प्रतीति होने पर पुरुष स्वयमेव-नियोग और भावना से निरपेक्ष रूप ही उस अर्थ में तदर्थी रूप से प्रवृत्ति करता है क्योंकि संकेत सामग्री से अर्थ का परिज्ञान होने पर पुरुष की प्रवृत्ति घटित होती है । "इदं कुरु" इस प्रकार से प्रेषण और अध्येषण रूप लिङ् अर्थ की ही प्रतीति होती है । यदि उसकी प्रतीति न मानो तो नियुक्तत्व का ज्ञान नहीं होगा और 1 शब्दस्य यतः स्वभावेन नियोजकत्वम् । 2 कायस्येत्यध्याहारः। 3 सौगतमाशङ्कय भट्टः प्राह । 4 अ य शब्दस्यायमर्थ इति सङ्केतः । 5 सङ्कतग्रहणे शब्दस्यायोग्यत्वात् सङ्केतग्राहकं ज्ञानं न तु शब्दः। 6 एतत्कुतः । (ब्या० प्र०) 7 कार्यस्य । 8 बौद्धः। 9 सङ्कतलक्षणा सामग्री। 10 प्रेरणायामिति वा पाठः । नियोगे। 11 उभयरूपायाम् । 12 यदिसङ्केतसामग्री न तत्र व्याप्रियते तदा पुरुषस्य कथमर्थे प्रवृत्तिरित्युक्ते आह। 13 अर्थसंवेदने सामाग्र्याः प्रवृत्तिर्न तु स्थिरस्थूलसाधारणाकारे बाह्यार्थे । (ब्या० प्र०) 14 संकेतसामग्री यदि न तत्र व्याप्रियेत पुरुषस्यार्थे प्रवृत्तिः कथमित्युक्ते आह । (ब्या० प्र०) 15 सत्याम् । 16 नियोगभावनानिरपेक्षतया। 17 अर्थे । 18 सङ्केत्तसामग्र्या अर्थपरिज्ञाने सति प्रवृत्तिघटनात् । 19 किञ्च भावना हि प्रेषणाध्येषणारूपा । सा च प्रयोज्यप्रयोजकद्वयीं विना तयोश्च बाध्यमानप्रतीतिकत्वेनाऽसत्त्वात्कुतः सा भावना ? यतस्तत्र सङ्कतो व्याप्रियेतेति वक्तुकामः । किञ्च प्रेषणाध्येषणयोरेपि बहिरर्थरूपतया न शाब्दी प्रतीतिरस्ति बुद्धचारूपस्यैवार्थस्य शब्दवाच्यत्वादतः कथं तद्रूपा भावना शब्दाभिधेयो यतस्तत्र सङ्कतो व्याप्रियेतेति वक्तुकाम इदं वित्याद्यारभ्य प्रज्ञाकर इतिपर्यन्त माह । 20 अनेन प्रकारेण । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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