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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
" इस बीच में विधिवादी बोल पड़ता है कि भले ही यज् धातु के अर्थ में लिङ् प्रत्यय का अर्थ प्रतिभासित हो रहा हो किन्तु वह प्रत्यय का अर्थ प्रधान नहीं है क्योंकि वह प्रत्यय का अर्थ भिन्नभिन्न अनेकों धातुओं में भी पाया जाता है, अत: धात्वर्थ ही प्रधान है। इस पर पुनः भाट्ट कहता है कि हम इससे विपरीत भी कह सकते हैं कि यज्, पच् आदि धातु का अर्थ भी प्रधान नहीं है क्योंकि प्रकरण प्राप्त लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्ययों के अतिरिक्त भी लट्, लिट्, तृच आदि अनेकों भिन्नभिन्न प्रत्ययों में आपका यज्, पच् आदि धातु का अर्थ विद्यमान है। अर्थात् जैसे यजेत् यजतां आदि में विधिलिङ् लोट् प्रत्यय का अर्थ है यज्ञ करना चाहिये, यज्ञ करो। किन्तु यह प्रत्यय का अर्थ प्रधान नहीं है, मात्र यज्ञ रूप धातु का भाव अर्थ ही प्रधान है, तब यज् धातु भी लिङादि प्रत्ययों के अतिरिक्त यजति, इयाज, यष्टा आदि के लट्, लिट्, तृच् आदि भिन्न-भिन्न प्रत्ययों में पाया जाता है जिसका अर्थ-यज्ञ को करता है, यज्ञ किया था, यज्ञ करने वाला आदि हो जाता है । यह यज् धातु भी अनेकों प्रत्ययों में चली जातो है अतः धातु के प्रत्यय का अर्थ ही प्रधान मानों क्योंकि अनेकों प्रत्ययों में धातुएँ व्याप्त रहती हैं । विधिवादी कहता है कि धातु का अर्थ तो सम्पूर्ण हो लिङ्, लिट्, लुट् आदि प्रत्ययों में माला में डाले हुये सूत्र के समान ओत-प्रोत है अतः धातु अर्थ प्रधान है इस पर भाट्ट कहता है कि इस प्रकार से तो सम्पूर्ण यजि, पचि, भू, कृ आदि धातुओं के अर्थों में पीछे-पीछे चलता हुआ प्रत्यय का अर्थ भी तो अन्वय रूप हो रहा है अत: प्रत्यय का अर्थ हो प्रधान मानना चाहिये । यदि आप अद्वैतवादी यों कहें कि विशेष-विशेष रूप प्रत्यय का अर्थ तो सभी धातुओं के अर्थों में अन्वय रूप नहीं है जैसे एक विवक्षित तिप् या तस् विभक्ति (प्रत्यय) का अर्थ सभी मिप, वस्, लुट, क्ति, तल आदि प्रत्यय वाले धातु के अर्थों में अन्वय रूप नहीं है। इस पर हम भाट्टों का भी यही कथन है कि विशेष रूप से एक यज धातु का अर्थ भी पच, गम आदि धातुओं के साथ लगे हये प्रत्ययों के अर्थों में ओत-प्रोत हो करके कहाँ रहता है। हाँ ! सामान्य रूप से धातु का अर्थ सम्पूर्ण प्रत्ययों के अर्थों में अन्वित है। इसलिये आप धातु के अर्थ को प्रधान कहेंगे तो हम प्रत्ययों के अर्थ को प्रधान कहने लगेंगे यह प्रश्नोंत्तरमाला दोनों मान्यताओं में समान ही है अतएव वेदवाक्य का अर्थ "शुद्ध धात्वर्थ रूप सन्मात्र है" यह कथन भी गलत है एवं वेदवाक्य का अर्थ "धातु के प्रत्यय के अर्थ रूप ही है" यह भी गलत है। हाँ ! यदि आप तृतीय पक्ष लेते हो कि धातु का अथ क्रियारूप है तब तो ठीक ही है क्योंकि "करोति" अर्थ लक्षण वाली क्रिया सभी धातुओं में विद्यमान है। ऐसा करोति क्रिया लक्षण धात्वर्थ यदि आप मान लेवें तब तो हमारे भावनावाद का हो पोषण हो जाता है क्योंकि सभी अर्थों में और सभी लकारों में वह करोति क्रिया व्याप्त है, वही तो भावना है । जसे जुहोतु, जुहुयात्, होतव्यं से लिङ्ग, लोट्, तव्य प्रत्यय हवन से विशिष्ट क्रिया को बतलाते हैं उसी प्रकार से सभी लट्, लिट् आदि लकार भी बतलाते हैं। जैसे “यांग करोति, चकार, करिष्यति" ये क्रियायें भी अथवा "पचति, पाकं करोति" आदि क्रियायें भी सर्वत्र करोति अर्थ को ही बताती हैं। पकाता है, पाक को करता है । यजति, यागं करोति यजता है, यज्ञ को करता है इत्यादि में करोति क्रिया ही प्रधान है वही वेदवाक्य का अर्थ है। ऐसे भावनावादी ने अपना पक्ष पुष्ट किया है।
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