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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
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एवं मिडादि (तिङादि) प्रत्ययों के लगने से हो शब्दों की पद संज्ञा होती है और पदों के समुदाय को वाक्य संज्ञा होती है। अब यहाँ विचार इस बात का करना है कि 'यजेत' पद में जो लिङ् प्रत्यय पड़ा है उसका क्या अर्थ है। प्रभाकर तो शुद्ध मात्र प्रत्यय के अर्थ को ही नियोग कहते हैं उनका कहना है कि "अग्निष्टोमेन यजेत्' वाक्य सुनकर “नियुक्तोऽहमनेन वाक्येन" इस प्रकार मैं इस वाक्य के द्वारा यज्ञ कर्म में नियुक्त हो जाता हूँ। विधिवादो कहते हैं कि शुद्ध यज् धातु का जो अर्थ है वह सत्तामात्र है, वही विधि अर्थात् ब्रह्मस्वरूप है । अर्थात् इस 'यजेत' पद में जो धातु का अर्थ है उसी धात्वर्थ को यह वाक्य कहता है।
भावनावादी कहता है कि यह उपर्युक्त वाक्य न केवल धातु अर्थ को ही कहता है और न ही केवल प्रत्यय के अर्थ को ही कहता है किन्तु इसमें जो "यज्ञ को करे” इस रूप से करोति क्रिया का अर्थ है वही भावना है। अतः 'यजेत' यह वाक्य, भावना अर्थ को ही कहता है। उनके ग्रंथों में कथन है कि-लिङ्, लोट् और तव्य प्रत्यय मात्र प्रत्यय के अर्थ रूप अर्थभावना से भिन्न ही शब्दभावना और आत्मभावना को कहते हैं। हाँ ! संपूर्ण अर्थों में व्याप्त हो रही "करोत्यर्थ" रूप अर्थभावना से भिन्न ही है जो कि गच्छति, पचति, यजति आदि संपूर्ण तिङन्त-आख्यात दशों लकारों में विद्यमान है यह अर्थभावना शब्दभावना से भिन्न है। इन दोनों भावनाओं में शब्दभावना तो शब्द का व्यापार स्वरूप है क्योंकि शब्द के द्वारा ही पुरुष का व्यापार भावित किया जाता है और पुरुष के व्यापार से यज्, पच् आदि धातु का अर्थ भावित किया जाता है तथा धातुओं के अर्थ से फल भावित किया जाता है यह शब्दभावनावादी भाट्टों का मत है। इस भाट्ट ने धात्वर्थ के विषय में तीन विकल्प उठाकर दूषण दिखाये हैं । यथा
यह धात्वर्थ शुद्ध सन्मात्र रूप है, यजनादि रूप है, या क्रिया रूप है ? यदि धात्वर्थ को शुद्ध सन्मात्र अर्थ ही मानों तब तो वह विधि रूप है क्योंकि जो कर्ता, कर्म आदि कारकों से रहित, भिन्न अर्थों से रहित, अपने अन्तर्गत विशेषों से रहित केवल भावमात्र है वही धात्वर्थ है उस सत्ता को और प्रातिपदिक अर्थ-अर्थवान् शब्द को ही धात्वर्थ कहते हैं। वह सत्ता ही महान् आत्मा है परमब्रह्म स्वरूप है । त्व, तल और अण् आदि प्रत्यय उसको प्रकट करते हैं जैसे ब्राह्मणता, ब्राह्मणत्वं, पांडित्यं आदि शब्द भाववाची हैं। त्व, तल् यण आदि प्रत्ययों से प्रगट हो रहे हैं। इस प्रकार से यदि प्रथम पक्ष रूप से धात्वर्थ को शुद्ध सन्मात्र मानों तो विधिवाद ही आ जाता है जो कि हम भाट्टों को इष्ट नहीं है। यदि आप दूसरा पक्ष लेवो कि सन्मात्र से भिन्न यजनादि रूप धात्वर्थ है तब तो वह प्रत्ययों के अर्थ से शून्य होने से किसी अग्निहोत्रादि वाक्य से प्रतीति में नहीं आ रहा है प्रत्युत् वाक्य के द्वारा प्रत्यय से सहित ही धातु का अर्थ प्रतीति में आता है।
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