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१८ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३प्रत्यया अपि--पचति पपाच पक्ष्यतीति पचनावच्छिन्नायाः क्रियाया एव प्रतिपत्तेः । पाकं करोति चकार करिष्यतीति' । “तथा च लिङादिप्रत्ययप्रत्याय्यः करोत्यर्थ एव वाक्यार्थ इत्यायातम् । स च 'भावनास्वभाव एवेति न धात्वर्थ एव वाक्यार्थतया प्रतीयते । 1°नापि कार्यादिरूपो नियोगः ।
जिस प्रकार से “जुहुयात्, जुहोतु, होतव्यं” (हवन करना चाहिये) इस प्रकार के लिङ्, लोट्, तव्य प्रत्यय हवन से विशिष्ट क्रिया को प्रतिपादित करते हैं उसी प्रकार से सर्वाख्यात प्रत्यय-लट् लकारादि भी प्रतिपादित करते हैं क्योंकि "पचति, पपाच, पक्ष्यति' इस प्रकार से पचन से अविच्छिन्न - व्याप्त क्रिया ही जानी जाती है। उस क्रिया से वह पाक को करता है, किया था और करेगा इत्यादि ज्ञान होता है। इस प्रकार से क्रिया को भावना मान लेने पर लिङादि प्रत्यय से जानने योग्य 'करोति' का अर्थ ही वेदवाक्य का अर्थ होता है यह बात सिद्ध हो जाती है और वह आत्मा शुद्ध भावना स्वभाव ही है इसलिये यह तीन प्रकार का धात्वर्थ ही वाक्यार्थ-वेद के अर्थ रूप से प्रतोति में नहीं आता है और न कार्यादिरूप नियोग हो वेद के अर्थ रूप से प्रतीति में आता है ।
विशेषार्थ-वेदवाक्यों में विधिलिङ् लोट् और तव्य प्रत्यय पाये जाते हैं यथा “अग्निष्टोमेन ययेत्”। इस “यजेत" क्रियारूप पद में विधिलिङ् है तथैव यजताम् और यष्टव्यं में लोट् और तव्य प्रत्यय हैं । व्याकरण के नियम के अनुसार मूल में दो तरह के शब्द होते हैं प्रकृति और धातु । पुरुष या धर्म शब्द प्रकृतिरूप हैं और भू, पच्, पठि आदि धातु कहलाते हैं। कातंत्रव्याकरण में "धातुविभक्तिवय॑मर्थवल्लिंग" इस सूत्र के अनुसार धातु और विभक्ति से रहित अर्थवाले पुरुष, धर्म आदि शब्दों को लिंग संज्ञा है । सिद्धांतकौमुदी में इसकी प्रातिपदिक संज्ञा है और जैनेन्द्र व्याकरण में इसी को मृत संज्ञा है। इस मृत संज्ञक शुद्ध प्रकृति रूप शब्दों से विभक्ति सु औ जस् अम् आदि आकर इस एक पुरुष शब्द को ही एकवचन, द्विवचन, बहुवचन एवं कर्ता कर्म करण आदि रूप सिद्ध कर देती हैं । जैसे 'पुरुषः' का अर्थ एक पुरुष है तो "पुरुषो" का अर्थ दो पुरुष हो जाता है तथा “पुरुष" का अर्थ "पुरुष को" हुआ, तो "पुरुषेण" का अर्थ "पुरुष के द्वारा" हो जाता है। अतः प्रकृति और विभक्ति अर्थात् प्रत्यय मिलकर ही अर्थ को प्रकट करते हैं। उसी प्रकार से मिङन्त में भी 'भू, कृ' आदि धातु हैं इनसे दश लकार से संबंधित मि, वस्, मस् आदि विभक्तियाँ आती हैं एवं कृदंत प्रकरण के अनुसार 'तव्य तच' आदि प्रत्यय भी आते हैं तभी इनका अर्थ स्पष्ट होता है । शुद्ध प्रकृति या धातु में यदि प्रत्यय के द्वारा विकार उत्पन्न न होवे तो वे ज्यों के त्यों पड़े रहेंगे उन शुद्ध प्रकृति या धातु से कोई भी वाक्य रचना नहीं बनेगी। हां ! उनमें प्रत्यय के लग जाने पर विकार के उत्पन्न हो जाने से वे अनेक अर्थों को प्रकट करने लग जाते हैं। जैसे 'जिन यजेत्', "धर्ममाश्रयामि, अहं गच्छामि" आदि वाक्य रचना एक-एक पदों के मिलाने से ही बनी है और "सुम्मिङन्तं पदं" इस सूत्र के अनुसार सुप् आदि विभक्तियाँ
1 लडादयः। 2 केन प्रकारेण प्रतिपत्तिरित्युक्ते आह । 3 अनेन । (ब्या० प्र०) 4 क्रियाया एव भावनात्वे च । 5 ज्ञाप्यः । (ब्या० प्र०) 6 आत्मा। 7 शुद्ध भावना। ४ पुरुष । (ब्या० प्र०) 9 त्रिविधोपि धात्वर्थः । 10 भाट्टः । 11 वाक्यार्थतया न प्रतीयते ।
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