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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ ६७ तरामादरः। 'अर्थ' 'ततोन्यो' धात्वर्थः सोपि न प्रत्ययार्थशून्यः 'कुतश्चिद्वाक्यात्प्रतीयते--तदुपाधेरेव तस्य ततः सम्प्रत्ययात् । 10प्रत्ययार्थस्तत्र प्रतिभासमानोपि न प्रधानं 12कर्मादिवदन्यत्रापि भावादिति चेत् तहि धात्वर्थो यजनादिः प्रधानं मा भूत् प्रत्ययान्तरेपि16 भावात् प्रकृत"प्रत्ययापायेपीति समानं पश्यामः1 । 1यदि पुनः 20क्रिया सकलव्यापिनीधात्वर्थ:-सर्वधातुषु भावात् तदा सैव भावना किं नेष्यते-22सर्वार्थेषु सद्भावात् । यथैव हि जुहुयाज्जुहोतु होतव्यमिति लिङादयः3 क्रिया हवनावच्छिन्नां24 प्रतिपादयन्ति तथा सर्वाख्यात विधिवादी-प्रत्यय का अर्थ उस धातु के अर्थ में प्रतिभासित होता हुआ भी प्रधान नहीं है क्योंकि वह प्रत्यय का अर्थ कर्म करण आदि के समान अन्यत्र-धात्वंतर (भिन्न धातुओं) में भी विद्यमान है। भाट्ट--तब तो धातु का अर्थ यजन आदि भी प्रधान नहीं होवे क्योंकि प्रकृत प्रत्यय (लिङ् लोट तव्य) के अभाव में भी प्रत्ययांतर में विद्यमान है। इस प्रकार से हम भावनावादी और आप विधिवादी दोनों के प्रति दूषण समान ही दीखते हैं । यदि पुनः सकल व्यापिनी क्रिया धातु का अर्थ है क्योंकि सभी धातुओं में विद्यमान है तो उसी को ही भावना-पुरुषभावना रूप क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हो, क्योंकि वह क्रिया सभी यजनादि लक्षण अर्थों में मौजूद है। अर्थात् भावनावादी कहता है कि हे विधिवादिन् ! आपके द्वारा स्वीकृत सन्मात्र- सत्तामात्र परम ब्रह्म ही धातु का अर्थ नहीं है क्योंकि सकलव्यापिनी-सभी धातुओं में व्याप्त "करोति" इस अर्थ के लक्षण वाली क्रिया संभव है ऐसा "करोति' क्रिया लक्षण धात्वर्थ यदि आप स्वीकार कर लेते हो तब तो हम लोग भी उसी सर्वव्यापिनी क्रिया को "भावना-पुरुषभावना -रूप" क्यों नहीं स्वीकार करेंगे अपितु करेंगे ही। क्योंकि सभी अर्थों में और सभी आख्यातों में वह क्रिया संभव है। 1 योगाचारः । (ब्या० प्र०) 2 द्वितीयविकल्पः (भाद्रः)। 3 भावनावाद्याह-हे विधिवादिन् एवं किं तवाभिप्रायः । तत: सन्मात्रादन्य एव धात्वर्थ इति तदा-सोपि धात्वर्थः प्रत्ययार्थरहितो न दृश्यते । 4 यजनादिः। 5 यजनादि । (ब्या० प्र०) 6 लिङाद्यर्थः करोत्यर्थव्याप्तः। 7 अग्निहोत्रादेः। 8 प्रत्ययसहितस्यैव तस्य धात्वर्थस्य ततो वाक्यात्प्रत्ययो भवति । 9 स प्रत्ययार्थ उपाधिविशेषणं यस्य स तथोक्तस्तस्य तदुपाधेः प्रत्ययार्थविशेषणभूतस्य सम्प्रत्ययात् । 10 प्रभाकरः । विधिवाद्याह। 11 धात्वर्थे। 12 कर्म करणादेर्यथान्यत्र भावो विद्यते । 13 धात्वन्तरे। 14 भाट्टः । 15 धात्वर्थान्तरे। 16 लडादौ। (ब्या० प्र०) 17 लिङ्लोटतव्य । 18 वयं भावनावादिनः हे विधिवादिन् तव मम च तुल्यं दूषणं पश्यामः। 19 (तृतीयो विकल्पः) भावनावादी प्राहः।-हे विधिवादिन् भवदभ्युपगत: सन्मात्रस्तावद्धात्वर्थो न । यदि पुन: सकलव्यापिनी करोत्यर्थ लक्षणा क्रिया सर्वधातुषु सम्भवाद्धात्वर्थस्त्वयाभ्युपगम्यते तदास्माभिः सैव सर्वव्यापिनी क्रिया भावना कि नेष्यते । अपि त्वभ्युपगम्यते । कुतः ? सर्वार्थेषु सर्वाख्यातेषु च तस्याः सम्भवात् । 20 यजनाचनादिक्रिया। 21 पुरुषभावना। 22 यजनादिलक्षणेषु लडादिषु च। 23 लोट् तव्य । (ब्या० प्र०) 24 हवनविशिष्टाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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