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________________ जब हम यहाँ से वापस कानपुर-लखनऊ होते हुए दरियाबाद पहुँचे तब इनके पिता जी आदि कई लोगों ने आकर टिकैत नगर चातुर्मास करने की प्रार्थना की। मेरे न चाहते हुए भी समाज के आग्रह पर इनकी जन्मभूमि पर ही पहला चातुर्मास हो गया। चातुर्मास के बाद वापस महावीर जी आगमन हुआ। आगामी चातुर्मास (वि० सं० २०११ में) जयपुर होना निश्चित हुआ । जयपुर चातुर्मास में इन्होंने मात्र दो माह में पं० दामोदर जी शास्त्री से कातंत्र व्याकरण पढ़ ली। इस प्रकार शीघ्र ही संस्कृत का अध्ययन अच्छी तरह कर निपुणता प्राप्त कर ली। एक व्याकरण के अध्ययन के आधार से अनेकों बड़े-बड़े ग्रन्थों का मूल संस्कृत से स्वाध्याय कर लिया। कहने का तात्पर्य यह है कि इनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण तथा एकपाठी थी। ज्ञान से अपनी चारित्रिक उन्नति कर समाज में एक अच्छी विदुषी शिरोमणी की पदवी पाई । हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसी स्त्री रत्न और छोटी अवस्था में घर छोड़कर इतने उच्च स्थान को प्राप्त करना मामूली बात नहीं है। लोग कहेंगे कि शिष्य होने से प्रशंसा लिख दी है सो बात नहीं है किन्तु गुणों के कारण प्रशंसा की गई है। आर्यिका दीक्षा मांगने पर हमने थोड़े दिन ठहरने को कहा । कुछ समय बाद बिहार करते हुए आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज से वि० सं० २०१३ में आर्यिका दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् अनेकों धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते-कराते हुए वक्तृत्व कला को भी सम्पन्न कर लिया। आज कई बड़े-बड़े संस्कृत के मूल ग्रन्थों का अध्ययन करके उनका अनुवाद करना भी प्रारम्भ किया है, उनमें से एक ग्रन्थ यह अष्टसहस्री है जो कि बारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य विद्यानन्द द्वारा रचित है। इस महान् ग्रन्थ के अनुवाद में बड़े-बड़े विद्वान भी हार मान गये, ऐसे ग्रन्थ का इन्होंने परिश्रम करके हिन्दी अनुवाद किया है जिससे अब इसके स्वाध्याय में भी सुगमता हो गई है। सभी स्त्री-पुरुष इसका रसास्वादन कर सकेंगे। ___ इसलिए हम अपनी शिष्या ज्ञानमती को बार-बार आशीर्वाद देते हैं एवं इस ग्रंथ के अध्ययन से सभी जैन-अजैन जनता को सच्चे आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त हो यही सबको हमारा शुभाशीर्वाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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