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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
शुद्धकार्यप्रेरणादिषु स्वाभिप्रायात् कस्यचित्प्रधानभावेपि पराभिप्रायात्प्रधानत्वाभावात् । तदन्यतरस्यापि स्वभावस्याव्यवस्थितेनै कस्यापि शब्दार्थत्वमिति चेत् 'तहि पुरुषाद्वैतवाद्याशयवशाद्विधेः प्रधानत्वेपि ताथागतमताश्रयणादप्रधानताघटनात् सोपि न प्रतिष्ठामापद्येत विप्रतिपत्तिसद्भावाविशेषात् ।
अभिप्राय होने से विद्यमान उससे भिन्न में गौण भाव का निश्चय होने से नियोग को वेदवाक्य का अर्थ कहना युक्त ही है।
विधिवादी-शुद्धकार्य, प्रेरणादिकों में स्व-प्रभाकर के अभिप्राय से किसी को प्रधान कर देने पर भी पर के-हमारे अभिप्राय से प्रधानता का अभाव है। उन दोनों प्रधान और अप्रधान में से किसी एक शुद्धकार्यादि नियोग स्वभाव की भी व्यवस्थिति न होने से प्रधान या अप्रधान रूप कोई भी एक प्रेरणादि नियोग वेदवाक्य का अर्थ नहीं हो सकेगा।
[ यहाँ भावनावादी भाट्ट सौगत मत का अवलंबन लेकर विधिवाद को दूषित करते हैं ]
भाट्ट-तब तो आप-पुरुषाद्वैतवादी के अभिप्राय के निमित्त से विधि को प्रधान मानने पर भी बौद्ध मत का आश्रय लेने से तो विधि की अप्रधानता ही घटित होती है अतः वह विधि भी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होगी क्योंकि विधिवादी और सौगत दोनों में विवाद का सद्भाव होने से समानता ही है।
भावार्थ-विधिवादियों का यह मन्तव्य है कि यद्यपि पर पदार्थों का परिहार करना शब्द का अर्थ है, किन्तु वह पर का परिहार गौण है। प्रधान रूप से तो विधि ही प्रवृत्ति का हेतु है क्योंकि पर पदार्थ अनंत हैं, अनंत जन्मों तक भी उनका निषेध शब्दों के द्वारा नहीं किया जा सकता है। हाँ ! कर्तव्य कार्य की विधि कर देने से नियुक्त पुरुष की तत्काल वहाँ प्रवृत्ति हो जाती है अतः शब्द का प्रधान अर्थ विधि ही है। इस पर भाट कहता है कि पुनः आप अद्वैतवादीजन प्रभाकर द्वारामान्य शुद्धकार्य, शुद्ध प्रेरणा आदि स्वरूप नियोग की भी व्यवस्था क्यों नहीं मान लेते हो क्योंकि प्रवृत्ति कराने का मुख्य अंग होने से शुद्ध कार्य ही प्रधान हो जावेगा और पुरुष, शब्द, फल आदि के विद्यमान होते हुये भी उनका अर्थ गौण मान लिया, जावेगा। तथैव शुद्ध प्रेरणा, कार्य सहित प्रेरणा आदि स्वरूप नियोग भी प्रभाकरों के यहाँ प्रधान हैं और उनसे भिन्न, पुरुष, फल आदि के मौजूद होते हुये भी उनको गौणरूप से शब्द के द्वारा जाना जाता है। अतः नियोग को शब्द का अर्थ मानना ठीक ही है। इस पर विधिवादी कहते हैं कि शुद्धकार्य, शुद्धप्रेरणा आदि में प्रभाकरों के अपने अभिप्राय से किसी एक को प्रधानता होते हुये भी भट्ट, वेदांती, बौद्ध आदिकों के अभिप्राय से प्रधानता नहीं मानी गई है
1 विधिवादी। 2 नियोगेषु । (ब्या० प्र०) 3 प्राभाकराभिप्रायात् । 4 अत्र विधिवादी वदति । तयोः प्रधानत्वाप्रधानत्वयोरन्यतरस्यापि शुद्धकार्यादिनियोगस्य । 5 प्रेरणादिनियोगस्य प्रधानस्याप्रधानस्य वा। 6 शुद्धकार्यादिनियोगस्य प्रधानभूतस्य । (ब्या० प्र०) 7 भावनावादी सौगतमतमवलम्ब्य विधिवादिनमाह । 8 विधिवादिसौगतयोविवादसद्भावेन विशेषाभावात् ।
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