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विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ८५ इति कुतो विध्येकान्तवादस्य प्रतिष्ठा प्रतिषेधैकान्तवादवतु' । स्यान्मतम् ।--परपरिहारस्य गुणीभूतत्वाद्विधेरेव प्रवृत्त्यङ्गत्वेन प्राधान्याद्विधिः शब्दार्थ इति । कथमिदानी' शुद्धकार्यादिरूपनियोगव्यवस्थितिर्न स्यात् ?--कार्यस्यैव शुद्धस्य प्रवृत्त्यङ्गतया प्रधानत्वोपपत्ते:--'नियोज्यादेस्तत्रापि10 गुणीभावात् । तद्वत्प्रेरणादिस्वभावनियोगवादिनां प्रेरणादौ प्रधानताभिप्रायात् तदितरस्य सतोपि गुणभावाध्यवसायाधुक्तो नियोगः शब्दार्थः ।
अदर्शन आदि का परिहार नहीं करती है तब तो यह विधि किसी भी श्रोता की प्रवृत्ति में हेतु नहीं बन सकेगी क्योंकि हिताहित को जानने वाले विद्वानों की प्रवृत्तियाँ प्रतिनियत विषय की विधि के साथ अविनाभाव संबंध रखती हैं जैसे घट की विधि यदि अघटों की व्यावृत्ति करेगी तब तो बुद्धिमान् नियत घट को लाने की प्रवृत्ति करेंगे अन्यथा शयन, रुदन, अध्ययन आदि जो भी कार्य कर रहे हैं उनको ही करते हुए कृतकृत्य हो जावेंगे उनको घट लाने या बनाने का कार्य आवश्यक ही नहीं रहेगा क्योंकि पर का परिहार तो नहीं किया गया है। जब इसने अपने से भिन्न अन्य का निषेध नहीं किया तब आत्मा के दर्शन, मनन के समान आत्मा के अदर्शन, अश्रवण, अध्ययन आदि में भी प्रवृत्ति कराने वाली हो जावेगी, मतलब दर्शन, श्रवण आदि में प्रवृत्ति नहीं होगी। जैसे किसी ने कहा कि आपको चटाई बनाना चाहिये यदि इस चटाई की कर्तव्य विधि में वस्त्र के बनाने रूप कर्तव्य का निषेध नहीं है तब तो वह श्रोता मनुष्य या तो चटाई वस्त्र, मकान आदि सभी कुछ बनाने लग जावेगा अथवा कुछ भी नहीं करेगा क्योंकि "कट: कर्तव्यः" यह, वाक्य जब अन्य का निषेध नहीं करता है तब उस श्रोता के सिर पर सभी काम आ पड़ेंगे। यदि दूसरा पक्ष लेकर आप कहें कि "दृष्टव्यो रे" इत्यादि वाक्य आत्मा के अदर्शन, अश्रवण आदि का निषेध करने वाले हैं तब तो आपने वेदवाक्य का अर्थ विधिप्रतिषेधात्मक रूप से उभय रूप ही मान लिया है पुनः आपका विधि-अस्तित्व रूप ही एकांतवाद कहाँ रहा ? अतएव जैसे शब्द का अर्थ अन्यापोह मात्र है ऐसा बौद्धों का कथन सिद्ध नहीं होता है वैसे ही आपका विधि रूप एकांत भी सिद्ध नहीं हो सकता है।
__विधिवादी-पर का परिहार रूप अन्यापोह गौण रूप है विधि ही प्रवृत्ति का अंग होने से प्रधान है इसलिये विधि ही वेदवाक्य का अर्थ है।
भाट्ट-इस प्रकार से प्रधानता का आश्रय लेकर विधि को वेदवाक्य का अर्थ करते समय शुद्ध कार्यादि रूप ग्यारह प्रकार के नियोग की व्यवस्था क्यों नहीं हो जावेगी ? क्योंकि शुद्ध कार्य ही प्रवृत्ति का अंग होने से प्रधान रूप होता है, नियोज्यादि-पुरुषादि वहाँ शुद्ध कार्य रूप नियोग-वाक्य में भी गौण हैं। उसी प्रकार से प्रेरणादि स्वभाव नियोगवादियों के यहाँ प्रेरणादि में प्रधानता का
1 यथा सर्वथा प्रतिषेधैकान्त (अन्यापोह) वादस्य प्रतिष्ठा नास्ति । 2 विधिवादी। 3 अन्यापोहस्य । 4 हेतुत्वेन । 5 परपरिहारस्य यथागुणीभूतत्त्वं तथा विधेरपि भविष्यतीत्याशंक्य योजनीयमिदं साधनं । (ब्या० प्र०) 6 भाट्टः । 7 प्राधान्यमाश्रित्य विधेः शब्दार्थनिरूपणावसरे। 8 शुद्धकार्याोकादशप्रकार। 9 पुरुषादेः। 10 शुद्धकार्यरूपे नियोगे। वाक्ये ।
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