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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ८७ [विधिरेव वाक्यस्यार्थः सर्वत्र प्रधानमिति मन्यमाने दोषः । स्यान्मतिरेषा ते विधेरेव सर्वत्र प्रधानता-प्रवृत्त्यङ्गत्वोपपत्तेः । न पुनः प्रतिषेधस्य सर्वथा प्रवृत्त्यङ्गतानुपपत्तेः। क्वचित्प्रवत्तितुकामो हि 'सर्वस्तद्विधि मन्वेषते तत्र पररूपप्रतिषेधान्वेषणे10 परिनिष्ठा नुपपत्तेः--12पर13 रूपाणामानन्त्यात् 14क्वचित्प्रतिषेद्धमशक्तेश्च । तद्धि पररूपं न 18तावत्स्वयमप्रतिपद्य क्रमशः प्रतिषेद्ध शक्यम्--प्रतिषेधस्य20 निविषयत्वप्रसङ्गात् । नापि प्रतिपद्य--तत्प्रतिपत्तेरपि 22पररूपप्रतिषेधापेक्षत्वात्--23 तस्यापि अतः शब्द के उन प्रधान, अप्रधान दोनों अर्थों में से किसी एक स्वभाव रूप भी नियोग सिद्ध नहीं हो सकता है अतः एक भी शब्द का अर्थ नहीं हो सकता है। ऐसा कहने पर तो आप पुरुषाद्वैतवादी के अभिप्राय से विधि अर्थ को प्रधानता होते हुये भी बौद्ध के मत से विधि को अप्रधानता घटित हो जाती है अतः यह विधि भी अपनी प्रतिष्ठा को कैसे रख सकेगी क्योंकि कई दार्शनिकों की ओर से विवादों के उपस्थित हो जाने पर विधि और नियोग दोनों में समाधान और निषेध में कोई अंतर नहीं दीखता है अतएव या तो आप विधिवादी विधि और नियोग इन दोनों को ही वेदवाक्य का अर्थ मान लीजिये या तो एक को भी न मानिये पक्षपात करने में कोई सार नहीं है। आगे इसी का और भी स्पष्टीकरण ग्रंथकार स्वयं करते हैं। [ वाक्य का अर्थ विधि ही है वही सर्वत्र प्रधान है ऐसा मानने में दोष ] विधिवादी-हमारे यहाँ विधि ही सर्वत्र-वेदवाक्य में प्रधान है क्योंकि वही प्रवृत्ति का अंग है किन्तु प्रतिषेध प्रवृत्ति का अंग नहीं है अतः वह प्रधान भी नहीं है। कहीं जलादि में प्रवृत्ति करने की इच्छा करते हुये सभी पुरुष विधि--जलादि के अस्तित्व को ही खोजते हैं वहाँ जलादि में पर रूप के प्रतिषेध की अन्वेषणा के होने पर परिसमाप्ति नहीं होती है क्योंकि पर रूप तो अनंत हैं उनका कहीं जलादि में प्रतिषेध करना अशक्य ही है अर्थात् विवक्षित वस्तु में पर रूप के अभाव का विचार करने पर कहीं भी परिसमाप्ति होना संभव नहीं है क्योंकि पर रूप तो अनंत हैं अतएव उनका किसी भी वस्तु में प्रतिषेध करना शक्य नहीं हो सकता है । [ हम आपसे प्रश्न करते हैं कि जो आप पर रूप का निषेध करते हैं वह क्रम से करते हैं या युगपत् ? क्रम से है कहो तो भी वहाँ पररूप को जान करके उसका निषेध करते हैं या बिना जाने ही? | 1 विधिवादिनः। 2 वाक्ये। 3 प्रवृत्त्यंगतोपत्तेः इति पाठः । (ब्या० प्र०) 4 सर्वथा प्रवृत्त्यङ्गतानुपपत्तेरिति वा पाठः। 5 कारणता। 6 जलादी। 7 जनः । तत्-जलं । (ब्या० प्र०) 8 जलाद्यस्तित्वम्। 9 जलादी। 10 सति । 11 परिसमाप्ति । 12 परिनिष्ठानुपपत्तिः कुतः ? 13 अग्निरूपाणाम् । 14 जलादी। 15 जलादौ पररूपाणां प्रतिषेध्दुमशक्तेश्च । (ब्या० प्र०) 16 तत्र विवक्षिते वस्तुनि पररूपाभावविचारणे परिसमाप्तिन सम्भवति । कस्मात ? पररूपाण्य नन्तानि यतः क्वचिद्वस्तुनि प्रतिषेधः कर्तुं न शक्यते च यत इति हेतुद्वयम् । 17 विधिवादी पृच्छति ।-हे सौगतमतावलम्बिन् भावनावादिन् ! त्वया यत्पररूपं प्रतिषिध्यते तत्क्रमशो युगपद्वा? क्रमशश्चेत्तदा तत्रापि पररूपं तदनिश्चित्य निश्चित्य वा प्रतिषिध्यते ? इति विकल्पमेव विधिवादी खण्डयति । 18 स्वरूपेण । (ब्या० प्र०) 19 अज्ञात्वा । (ब्या० प्र०) 20 अन्यथा। (ब्या० प्र०) 21 पररूपं ज्ञात्वा स्वयं क्रमेण निवारयितुं न शक्यते । कस्मात् ? तस्य पररूपस्य निश्चितेरप्यन्यपररूपप्रतिषेधाश्रयत्वात् । 22 अपरापर- . रूपस्य । (व्या०प्र०) 23 पररूपस्यापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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