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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ७५ नियोगोवतिष्ठते', न प्रतीयमानतया तस्याः सकलवस्तुसाधारणत्वात् । अनुष्ठेयता च यदि प्रतिभाता कोन्यो 'नियोगो यस्यानुष्ठितिरिति चेत् तहि विधिरपि न प्रतीयमानतया प्रतिष्ठामनुभवति', किन्तु विधीयमानतया । सा चेदनुभूता कोन्यो विधिर्नाम यस्य भावनावादी-तब तो नियोग को भी ऐसा ही मानों क्या बाधा है ? विधिवादी-अनुष्ठेय-कर्त्तव्य रूप से ही नियोग है किन्तु प्रतीयमान रूप से नहीं है क्योंकि वह सकल वस्तुओं में साधारण रूप से है। और प्रश्न यह होता है कि उस नियोग की अनुष्ठेयता-- कर्तव्यता प्रतिभात है या अप्रतिभात ? यदि प्रतिभात है तो प्रतिभास के अंतः प्रविष्ट ही है। यदि अप्रतिभात है तब तो उसकी अवस्थिति ही नहीं है इसलिये कर्तव्यता यदि प्रतिभात है तब तो नियोग नाम की अन्य क्या चीज है कि जिसका अनुष्ठान होवे ? भावनावादी-तब तो विधि भी प्रतीयमान रूप से व्यवस्था को प्राप्त नहीं कर सकती है किन्तु विधीयमान रूप से ही व्यवस्थित हो सकती है, क्योंकि वह भी सकल वस्तु में साधारण रूप से है । अन्यथा अन्यापोह को भी विधिरूप का प्रसंग आ जावेगा । यदि कहो कि वह अनुभूत है तो विधि अन्य और क्या चीज है कि जिसका विधान उपनिषद् वाक्य से आप वेदांती सुन लेते हैं। भावार्थ-यदि विधिवादी कहे कि कुछ अंश रूप से असत् नियोग का अनुष्ठान कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो सत् रूप नहीं है और गगनकुसुमवत् जिसकी प्रतीति ही नहीं है उसका अनुष्ठान असंभव है। तब यह दोष तो आप अद्वैतवादी पर भी लागू हो जाता है क्योंकि आपने भी विषय के असद्भुत अंश वाली विधि का ही अनष्ठान माना है। यदि आप कहें कि हमारे यहाँ विधि की प्रतीति हो रही है अतः उस विधिरूप ब्रह्म का स्वरूप सिद्ध है पूनः उसके अनुष्ठान में क्या बाधा है ? तब तो हम भाट्ट भी ऐसा कह सकते हैं कि प्रभाकर के यहाँ वह नियोग भी प्रतीति में आ रहा है वे भी उसको अनुष्ठान करने योग्य मानते हैं । इस नियोग की पुष्टि के कथन पर पुनरपि विधिवादी अपना ही पक्ष पुष्ट करते हुये कहते हैं कि नियोग अनुष्ठान करने योग्य तो है किन्तु उसकी प्रतीति नहीं हो सकती है, क्योंकि केवल वह अनुष्ठेयता मात्र तो संपूर्ण वस्तुओं में सामान्य रूप से पाई ही जाती है और यदि वह अनुष्ठेयता आप प्रभाकर को प्रतिभासित हो चुकी है तब तो आपका यह कथित नियोग भी प्रतिभास के अंतरंग में प्रविष्ट हो जाने से नित्य ब्रह्म रूप ही सिद्ध हो गया समझना चाहिये । पुनः ब्रह्म से भिन्न दूसरा नियोग कुछ रहा ही नहीं कि जिससे आप उसके अनुष्ठान का विधान कर सकें और यदि आप उस 1 अयं नियोगो नान्य इति व्यवस्थितिर्भवति । 2 जुहुयादित्यादिषु । 3 अनुष्ठेयता प्रतिभाता अप्रतिभाता वा ? यदि प्रतिभाता तदा प्रतिभासान्तःप्रविष्टैव । अप्रतिभाता चेत्तदा तस्यावस्थितिरपि नास्ति। 4 वाक्यात्प्रतीयमानः । (ब्या० प्र०) 5 तस्याः सकलवस्तुसाधारणत्वादिति सम्बन्धः। 6 अन्यथान्यापोहस्यापि विधित्वप्रसंगात । (ब्या० प्र०) 7 दृष्टव्योरेयमात्मेत्यादिकर्तव्यतया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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