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७६ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३विधानमुपनिषद्वाक्याद'नुकर्ण्यते । ननु दृष्टव्यादिवाक्येनात्मदर्शनादिकं विहितं. ममेति प्रतीतेरप्रतिक्षेपार्हो विधिः कथमपाक्रियते ? "किमिदानीमग्निहोत्रादिवाक्येन यागादिविषये
नियोग को प्रतिभासित नहीं मानोंगे तब तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा क्योंकि हम अद्वैतवादियों के यहाँ तो "नरः प्रतिभासते, पट: प्रतिभासते" इत्यादि रूप से मनुष्य, घट पट आदि सभी चेतन अचेतन पदार्थों को ब्रह्म स्वरूप बनाकर ब्रह्माद्वैतवाद को सिद्ध करने के लिये आकाश के समान विशाल उदर वाला सबसे सुन्दर "प्रतिभासमानत्वात्" हेतु मौजूद है जो कि सभी पदार्थों को बिना श्रम के ब्रह्म स्वरूप बना देता है तथाहि, 'सर्वेऽपि चेतनाचेतनात्मकपदार्थाः प्रतिभासान्तः प्रविष्टाः संति, प्रतिभासमानत्वात् प्रतिभासस्वरूपवत्" अर्थात् सभी चेतन अचेतन पदार्थ प्रतिभास रूप परम ब्रह्म के अंतः प्रविष्ट हैं, क्योंकि वे प्रतिभासित हो रहे हैं जैसे कि प्रतिभास-ब्रह्म का स्वरूप उस ब्रह्म के ही अंतः प्रविष्ट हैं। इस कारण से नियोग भी अनुष्ठान करने योग्य होकर प्रतिभासित हो चुका है और जो प्रतिभासित हो जाता है उसकी वर्तमान काल में प्रतीति नहीं होती है अतः यदि आप ब्रह्माद्वैतवादी नहीं बनना चाहते हैं तब तो आप नियोग को अप्रतीयमान ही रहने दीजिए। इस पर भाट्ट अपने भाई नियोगवादी को सहारा देते हुए कहते हैं कि इस प्रकार से आप की विधि का भी तो वर्तमान काल में अनुभव नहीं आ रहा है किन्तु वह वर्तमान में विधीयमान-विधान किए जाने रूप से ही जानी जाती है क्योंकि वह विधीयमानता भी तो सभी पदार्थों में साधारण रूप से पाई जाती है और जब विधि की विधीयमानता का अनुभव हो चुका है तो फिर उससे अन्य कौन सा अंश विधि नाम का शेष रह गया है कि जिसका "दष्टव्योरेयमात्मा" इत्यादि वाक्यों से विधान कराया जा सके इसलिये विधि भी अप्रतीयमान है ऐसा मान लेना चाहिये अन्यथा उसका विधा सकेगा। इस प्रकार से भाट्ट ने विधिवादी पर दोषारोपण किया है । यहाँ पर अनुष्ठेयता भविष्यत्कालीन है, प्रतीयमानता वर्तमान कालीन है एवं प्रतिभासित्व भूतकाल का वाचक है इस प्रकार से कालों का व्यतिकर (भेद) दिखलाते हुए विद्वानों का अच्छा संघर्ष हो रहा है।
विधिवादी-"दृष्टव्यादि" वाक्यों से आत्मदर्शनादि अवश्यकरणीय कहे गए हैं क्योंकि 'मम इदं कर्तव्यं' यह मुझे करने योग्य है इस प्रकार से प्रतीति होती है अतः विधि प्रतिक्षेप–निषेध के योग्य नहीं है पुनः नियोगवादी प्रभाकर उसका निराकरण कैसे करते हैं ?
भाट्ट-तो क्या विधि की प्रतीति के समय अग्निहोत्रादि वाक्य से यज्ञादि के विषय में 'मैं नियुक्त हूँ' ऐसी प्रतीति नहीं आती है कि जिससे नियोग का खंडन आप करते हैं । अर्थात् आप नियोग का खंडन भी नहीं कर सकेंगे।
1 वेदान्तवादिना। 2 उपवर्ण्यते इति पा० । (ब्या० प्र०) 3 विधिवादी। 4 अवश्यङ्करणीयम् । 5 प्रभाकरेण । 6 विधेः प्रतीतिकाले।
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