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________________ ७४ ] अष्टसहस्री [कारिका ३ येनांशेन' 'नास्ति 'तेनानुष्ठानमिति चेत् तिन्नियोगेपि समानम् । 'कथमसन्नियोगोनुष्ठीयते-अप्रतीयमानत्वात् खरविषाणवदिति चेत्तत एव विधिरपि नानुष्ठेयः । 'प्रतीयमानत्वादनुष्ठेयतया चासिद्धत्वादनुष्ठेयो विधिरिति चेन्नियोगोपि "तथास्तु । नन्वनुष्ठेय तयव14 कि "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि वाक्य के सुनने के अवसर पर जब दर्शन श्रवण हैं ही नहीं तब उनका धर्म विधि भी विद्यमान नहीं है पुनः उस असद्भूत विधि का अनुभव भी वाक्य के द्वारा कैसे हो सकेगा ? अतः जैसे यज्ञ रूप विषय का धर्म नियोग सिद्ध नहीं है वैसे ही विधि भी सिद्ध नहीं है । इस पर विधिवादी कहता है कि हम दर्शन, श्रवण आदि को विधि का विषय नहीं मानते हैं किन्तु विषय रूप से प्रतिभासित परम ब्रह्म को ही हम विधि का विषय मानते हैं और पुरुष तो पहले से ही बना बनाया नित्य रूप सिद्ध है, इसलिये विधि को पुरुष रूप विषय का धर्म मानना ठीक ही है। इस पर पुनः भाट्ट कहता है कि तब तो नियोगवादियों के यहाँ यज्ञ, पूजन आदि के अधिकरण रूप द्रव्य, आत्मा, पात्र, स्थानादि पदार्थ भी पहले से ही सिद्ध हैं अतः उन द्रव्य आदिकों का विषय होने से नियोग भी क्यों नहीं सिद्ध हो जावेगा? पुनरपि विधिवादी आरोप उठाता है कि जिस रूप से द्रव्यादि विषय पहले से विद्यमान हैं उसी रूप से उनका धर्म नियोग भी पहले से ही मौजूद है अतः बन चुकेसिद्ध रूप नियोग का अनुष्ठान कैसे हो सकेगा ? इस पर भाट्ट कहता है कि परमब्रह्म का विषय भी जिस रूप से विद्यमान है उसी स्वरूप से उसके धर्म रूप विधि का भी सद्भाव है अतः उसका विधान भी कैसे किया जा सकेगा ? यदि आप कहें कि जिस स्वरूप से विधि अविद्यमान है उस रूप से उसका अनुष्ठान होता है तो नियोग में ऐसा ही समझिये कि जिस अंश से नियोग विषयी अविद्यमान है उसी अंश से कर्मकांडी मीमांसक उसका अनुष्ठान करते हैं। विधिवादी- असत् रूप नियोग का अनुष्ठान कैसे किया जायेगा क्योंकि वह तो अप्रतीयमान है खर-विषाण के समान । भाट्ट-उसी हेतु से विधि भी अनुष्ठेय नहीं हो सकेगी। विधिवादी-वर्तमान काल में विधि प्रतीयमान होने से प्रतीत हो रही है, किन्तु दर्शन, श्रवण आदि अनुष्ठेय रूप से असिद्ध रूप है अतएव वह विधि अनुष्ठेय है। अर्थात् भविष्यत्काल में उस विधि का विधान करना योग्य है । 1 अत्र विधिवादी वदति। 2 दर्शनादिना । (ब्या० प्र०) 3 विधिर्नास्ति। 4 विधेः करणं घटते। 5 उत्तरं । (ब्या० प्र०) 6 अनुष्ठानम् । 7 विधिवादी। 8 उत्तरम् । अप्रतीयमानत्वादेव। 9 विधिवादी। 10 दर्शनश्रवणादिरूपतया। 11 विधिप्रकारेण प्रतीयमानत्वादनुष्ठेयो भवतु। 12 विधिवादी भावनावादिनं प्रति। 13 कर्त्तव्यतया। 14 करणीयतया एव । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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