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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ७१ धानविरोधः । तद्विधाने वा सर्वदा तदनुपरतिप्रसक्तिः । दर्शनादिरूपेण 'तस्यासिद्धौ 'विधानव्याघातः कूर्मरोमादिवत् । सिद्धरूपेण विधाप्यमानस्य विधाने तस्यैवासिद्धरूपेण चाविधाने सिद्धासिद्धरूपसङ्कराद्विधाप्येतरत्वविभागासिद्धिः। तद्रूरूपासङ्करे वा भेदप्रसङ्गादात्मनः सिद्धासिद्धरूपयोस्तत्संबन्धाभावादि दोषासञ्ज'नस्याविशेषः । तथा विषयस्य किया गया है ऐसे उस पुरुष के विधि (अवश्यकरणीय, दर्शन, श्रवण, मननादि) रूप धर्म में भी परमब्रह्म रूप सिद्ध पुरुष के दर्शन, श्रवण, अनमनन, ध्यान के विधान का विरोध आता है। अथवा उस सिद्ध पुरुष के भी यज्ञ करने का विधान मान लेने पर हमेशा उसके यज्ञ करने की उपर ति नहीं हो सकेगी एवं उस विधि रूप ब्रह्म को असिद्ध मानने पर उसके दर्शन, श्रवण आदि के विधान का विरोध हो जाता है। जैसे कूर्म रोमादि है नहीं, तो उससे वस्त्रादि बनाने का विरोध ही है एवं सिद्ध रूप से विधाप्यमान–ब्रह्म का विधान करने पर और उसी का असिद्ध रूप से विधान न करने पर सिद्धासिद्ध रूप का संकर हो जाने से विधाप्यमान और अविधाप्यमान रूप विभाग की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अथवा उन दोनों रूपों का संकर न मानने से भेद का प्रसंग आ जाने पर आत्मा से सिद्धासिद्ध का संबंध न हो सकना आदि दोषों का प्रसंग समान ही है। भावार्थ-यहाँ पर भाट्ट विधिवादी को दूषण देते हुये कहते हैं कि जैसे आप विधिवादी नियोग में दूषण देते हो वैसे ही आपके यहाँ विधिवाद में भी दूषण समान ही है। अर्थात् जैसे प्रभाकर का मान्य नियोग नियोज्य-पुरुष का धर्म तथा याग लक्षण-विषय का धर्म, एवं नियोक्ता-शब्द का धर्म नहीं हो सकता है वैसे ही विधि भी विधीयमान-पुरुष का धर्म तथा विधेय-विषय का धर्म एवं विधायकशब्द का धर्म नहीं हो सकता है। देखिये! जिस प्रकार नियक्त होने योग्य पुरुष का धर्म' यदि नियोग माना जावे तो आप अद्वैतवादियों ने प्रभाकर के ऊपर 'अनुष्ठान नहीं करने योग्य" आदि दोषों का आरोप किया है, मतलब नियुक्त होने योग्य पुरुष अनादिकाल से स्वतः सिद्ध है तो उस आत्मा का स्वभाव नियोग भी पूर्वकालों से सिद्ध है और यदि सिद्ध हो चके पदार्थ का अनष्ठान माना जावेगा तो अनुष्ठान का कभी भी अंत ही नहीं हो सकेगा, कृत का पुन: करना होते रहने से पुनः पुनः उसी किये को करते चलिये, चवित का चर्वण अनंत काल तक करते रहिये । अतः यही अच्छा है कि बन चुके को पुन: न बनाया जावे। नित्य पुरुष के धर्म रूप नियोग का कोई भाग असिद्ध तो है नहीं । हाँ ! यदि किसी असिद्ध रूप को नियुक्त होने योग्य माना जावेगा तब तो सर्वथा असिद्ध-वंध्यापुत्र, अश्वविषाण आदि को भी नियोज्य मानना पड़ेगा। यदि आप कहें कि आत्मा का धर्म नियोग किसी एक सिद्ध रूप से नियोज्य एवं किसी एक असिद्ध रूप से अनियोज्य है तब तो एक ही आत्मा 1 अनुष्ठेयतेत्यर्थः । (ब्या० प्र०) 2 तस्य सिद्धस्य पुरुषस्य करणे वा। 3 अविश्रान्तिरनवस्था वा। 4 विधेः । 5 यागलक्षणस्य विषयधर्मस्य नियोगस्य। 6 सकाशात् । 7 अनुषङ्गस्य। 8 हे विधिवादिन् ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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