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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ३ सङ्करे वा भेदप्रसङ्गादात्मनः सिद्धासिद्ध रूपयोः सम्बन्धाभावोनुपकारात् । उपकारकल्पनायामात्मनस्तदुपकार्यत्वे नित्यत्वहानिः । तयोरात्मोपकार्यत्वे सिद्धरूपस्य सर्वथोपकार्यत्वव्याघातः । असिद्धरूपस्याप्युपकार्यत्वे गगनकुसुमादेरुपकार्यतानुषङ्गः । सिद्धासिद्धरूपयोरपि कथञ्चिदसिद्धरूपोपगमे प्रकृतपर्यनुयोगानिवृत्तेरनवस्था'नुषङ्गादित्युपालम्भः । [ भावनावादिना भाट्टेन प्राग्यथा नियोगवादो निराकृतस्तथैवाधुना विधिवादोपि निराक्रियते । तथा विधाप्यमानस्य पुरुषस्य धर्मे 1 विधावपि सिद्धस्य पुंसो दर्शनश्रवणानुमननध्यानवि पर वही नियोग असिद्ध रूप से अनियोज्य हो जाता है। इस प्रकार से एक पुरुष में सिद्ध, असिद्ध रूप का मिश्रण हो जाने से यह नियोज्य है और यह अनियोज्य है, ऐसा भेद सिद्ध नहीं हो सकेगा। अथवा उन दोनों रूपों का मिश्रण न होने पर भेद घटित हो जाने से आत्मा में परस्पर में सिद्धासिद्ध रूप संबंध नहीं रहेगा। __ अथवा उन रूपों का संकर न होने पर भेद का प्रसंग आ जाने से आत्मा के सिद्ध असिद्ध रूप में संबंध का अभाव है. क्योंकि कोई भी उपकार संबंध नहीं है और यदि आप उपकार की कल्पना करोगे तो उन सिद्ध और असिद्ध के द्वारा आत्मा का उपकार मानने पर आत्मा के नित्यत्व की हानि हो जावेगी। एवं उन दोनों सिद्ध असिद्ध रूप नियोगों पर आत्मा के द्वारा उपकार मानने पर जो सिद्ध रूप है उसके तो सर्वथा उपकारपने का विरोध आता है। तथा असिद्ध रूप का भी उपकार मानने पर आकाश फूल आदि के भी उपकारित होने योग्य का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् आत्मा सिद्ध रूप का उपकारक है या असिद्ध रूप का ? इन दो विकल्पों को उठाकर उन दोनों में दोष दिखाया है। . सिद्धासिद्ध रूप नियोग को भी कथंचित् असिद्ध रूप स्वीकार करने पर प्रकृत के-उपर्युक्त प्रश्न दूर नहीं किये जा सकेंगे, प्रश्नों की अनवस्था ही आ जावेगी। [पूर्व में भावनावादी भाद्र ने जैसे नियोग का खण्डन किया है उसी प्रकार से विशेष रूप से अब _ विधिवाद का भी खण्डन करता है ] भाट-जिस प्रकार से नियोग पक्ष में दूषण आते हैं तथैव विधाप्यमान-जिसके लिये विधि की जावे अर्थात् “अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" इस वाक्य के द्वारा जिसके लिये यज्ञ का विधान 1 आत्मनः सकाशात् सिद्धासिद्धरूपयोर्भेदप्रसंङ्गात् । 2 आत्मनः सकाशात्सिद्धासिद्धरूपयोर्भेदप्रसंगादित्यर्थः । (ब्या० प्र०) 3 ता। (ब्या० प्र०) 4 ताभ्यां सिद्धासिद्धाभ्यामुपकार्यत्वे कि दूषणं स्यात् ? आत्मनो नित्यत्वहानिः । 5 आत्मा सिद्धरूपस्योपकारकोऽसिद्धरूपस्य वेति विकल्पद्वयं कृत्वा निराचष्टे । (ब्या० प्र०) 6 किचित् इत्यपि पाठः प्रतिभाति । (ब्या० प्र०) 7 प्रारब्धनियोगप्रश्नस्य निवृत्तिन भवतीति तदा किमायातम् ? अनवस्थानाम दूषणं स्यात् । 8 अत: प्रभृति नियोगखण्डनवद्विधेः खण्डनं करोति भावनावादी। 9 यथैव हीत्यादिनियोगपक्षे। 10 अवश्यकरणीयदर्शनश्रवणमननादिरूपे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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