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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ६६ [ अधुना जनमतमाश्रित्य भाट्टः विधिवादिनं दूषयति ] 'यथैव हि नियोज्यस्य पुंसो धर्मे नियोगेऽन'नुष्ठेयता नियोगस्य सिद्धत्वाद्अन्यथा तदनुष्ठानोपरमाभावानुषङ्गात् _ 'कस्यचिद्रूपस्यासिद्धस्याभावात् । असिद्धरूपतायां' वाऽनियोज्यत्वं-विरोधाद्वन्ध्यास्तनन्धयादिवत् । 1सिद्धरूपेण नियोज्यत्वे तस्यैवासिद्धरूपेण वा नियोज्यतायामेकस्य पुरुषस्य सिद्धासिद्धरूप सङ्करान्नियोज्येतरत्वविभागासिद्धिः । तद्रूपा आरोप कर सकते हैं। अर्थात् आपका परमब्रह्म भी घट पटादि के समान पुरुष से भिन्न प्रतिभासित नहीं होता है तथा विधान करने योग्न दर्शन, श्रवण, मनन आदि या दृष्टव्य विषय का धर्म, अथवा ब्रह्म को कहने वाले वेदवाक्यों के द्वारा भी विधिरूप परमब्रह्म की व्यवस्था नहीं हो सकती है अतः आपके द्वारा मान्य वेदवाक्य का विधि' अर्थ भी सिद्ध नहीं हो पाता है। [ जैनमत का आश्रय लेकर भाट्ट विधिवादी पर दोषारोपण करता है ] जिस प्रकार से नियोज्य पुरुष का नियोगधर्म में अनुष्ठेयपना न होने से अकर्तव्यता है क्योंकि नियोग की सिद्धि है । अन्यथा उसके अनुष्ठान के उपरम-समाप्ति का अभाव ही हो जावेगा, क्योंकि उसका कुछ भी रूप असिद्ध नहीं है। अर्थात् यदि सिद्ध रूप नियोग की कर्तव्यता है तब तो नियोग को करने में अनवस्था का प्रसंग आता है क्योंकि उस नियोग में कोई भाग असिद्ध नहीं है। यदि कहो कि असिद्ध रूप भी नियोग नियोज्य है तब तो बंध्या के पुत्रादि भी नियोज्य हो जावेंगे, किन्तु ऐसा तो है नहीं, लोक में विरोध देखा जाता है। सिद्ध रूप से-पुरुष रूप से नियोज्य को मानने पर अथवा उसी को असिद्ध रूप से नियोज्य कहने पर तो सर्वथा निरंश रूप एक पुरुष में सिद्ध और असिद्ध दो रूप से संकर दोष आ जावेगा । पुनः नियोज्य और अनियोज्य रूप से विभाग ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। अर्थात् नियोग का एक रूप सिद्ध है अन्य रूप असिद्ध है, सिद्ध रूप से नियोज्य मानने 1 एतदेव क्रमेण विवियते। 2 अतो नियोगखण्डनद्वारेण विधिखण्डनार्थ भावनावादी वदति। 3 अकर्तव्यता । 4 पुरुषधर्मस्य नियोगस्य सिद्धत्वं कथमित्याशंकायामाह । (ब्या. प्र०) 5 सिद्धरूपस्य नियोगस्य यद्यनुष्ठेयता तदा - तस्य नियोगस्य करणीयानवस्थाप्रसंग:-यतस्तत्र नियोगे कश्चिद्भागो असिद्धो नास्ति । 6 पुरुषधर्मस्य नियोगस्य सिद्धत्वं कथमित्याशंकायामाह कस्यचिदिति। 7 पुरुषस्य । (ब्या० प्र०) 8 असिद्धरूपोपि नियोगः नियोज्यो भवतीति चेत्तदावन्ध्यास्तनन्धयादेरपि नियोज्यत्वप्रसंगः । तथा नास्ति लोके विरोधदर्शनात् । 9 वा नियोज्यत्वविरोधात् । इति पा० । तच्छुद्धं प्रतिभाति । (ब्या० प्र०) 10 पुरुषरूपतया । (ब्या० प्र०) 11 अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इत्यसिद्धरूपेण । (ब्या० प्र०) 12 नियोगस्यक रूपं सिद्धमन्यदसिद्धं सिद्धरूपेण नियोज्यत्वे सति तस्यैव नियोगस्यासिद्धरूपेण कृत्वा अनियोज्यतायां सत्यामित्येकपुरुषस्य सिद्धासिद्धरूपमिश्रणादयं नियोज्योयमनियोज्य इति भेदो न सिद्ध्यति । अथवा तद्रूपयोरमिश्रणे सति भेदघटनादात्मनः सिद्धासिद्धरूपयोश्च परस्परसम्बन्धो नास्ति । कस्मात् ? उपकाराकरणात् । 13 सर्वथा निरंशस्येत्यर्थः । (ब्या० प्र०) 14 अभेदः । (ब्या० प्र०) 15 तद्रूपासंकरे एव भेदप्रसंगादिति वा पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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