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६८ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३विधिकथनं नियोगकथनवत् । तथापि विधेर्वाक्यार्थत्वे नियोगस्यापि वाक्यार्थत्वं कुतो न भवेत् । पटादिवत् पदार्थान्तरत्वेना प्रतिभासना'नियोज्य मानविषय नियोक्तृधर्मत्वेन चानवस्थानान्न नियोगो 10वाक्यार्थ इति चेत् तदितरत्रापि12 समानम्13_विधेरपि घटादिवत् पदार्थान्तरत्वेनाप्रतिभासनात्-विधाप्य"मानविषय विधायक धर्मत्वेनाव्यवस्थितेश्च ।
विधिवादी-'नियोग' वस्त्रादि (या घटादि पाठ भेद भी है) के समान भिन्न रूप होने से प्रतिभासित नहीं होता है और नियोज्यमान पुरुष के यागादि विषय में “अग्निष्टोमेन" इत्यादि नियोक्ता के धर्म रूप से व्यवस्थित न होने से नियोग वेदवाक्य का अर्थ नहीं हो सकता है। अर्थात् घट शब्द से जैसे पृथु बुध्नोराकार-गोलमटोल रूप “घट" अन्य ही प्रतीति में आता है वैसे ही अग्निष्टोमादि वाक्य से अन्य रूप नियोग प्रतीति में नहीं आता है । इस रीति से अप्रवर्तक स्वभाव में भी विधि ही वाक्य का अर्थ है नियोग है ऐसा नियम है। यहाँ “घटवत्" यह दृष्टांत व्यतिरेक में है।
भाट्ट-यह बात तो आपके विधिपक्ष में भी समान ही है-विधि भी घटादि के समान भिन्न होने से प्रतिभासित नहीं होती है "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादि वाक्य से विधोयमान-यागादि रूप विषय, विधायक-आत्मा के धर्म रूप से व्यवस्थित न होने से वह विधि भी वेदवाक्य का अर्थ नहीं हो सकती है।
भावार्थ-अद्वैतवादी का कहना है कि जैसे आत्मा से भिन्न कल्पित किये गये घट पटादि पदार्थ भिन्न-२ प्रतिभासित होते हैं, वैसे न तो भिन्न पदार्थ रूप से नियोग ही प्रतिभासित है, न वेदवाक्य रूप नियोग से नियुक्त हुये श्रोता पुरुष ही प्रतिभासित हैं और न यज्ञ आदि विषय का धर्म रूप नियोग ही प्रत्यक्ष है अतः "भिन्न पदार्थ रूप हेतु" से एवं "श्रोता पुरुष के यज्ञादि विषय में नियोक्ता (वेदवाक्य) के धर्म रूप" हेतु से, इन दोनों ही हेतुओं से नियोग प्रतिभासित नहीं है अतः वेदवाक्य का अर्थ नियोग नहीं हो सकता है। इस पर भाट्ट कहता है कि इसी आक्षेप का हम आपके ऊपर भी
1 अप्रवर्तकत्वेपि । यद्यपि प्रमाणप्रमेयाद्यनेकधा विकल्पखण्डनद्वारेण विधिर्वाक्यार्थो नास्ति तथापि विधिवादिनो बलात्कारेण विधेर्वाक्यार्थत्वे नियोगस्यापि वाक्यार्थत्वं कथं न भवेत् ? इत्याशयः। 2 व्यतिरेकदृष्टान्तः । विधिवाद्याह ।-यथा पुरुषात्पटादिकार्यरूपं भिन्न प्रतिभासते तथा न नियोगप्रेर्यमाणपुरुषविषयप्रेरकधर्मरूपेण घटादिः प्रतिभासते तथा नियोग इति हेतद्वयान्नियोगस्यानवतारान्न नियोगो वाक्यार्थो न भवति । 3 भिन्नत्वेन । 4 घटादिवत् इति पा० । यथा घटशब्दात्पृथबुध्नोदराकाररूपो घटोऽन्यः प्रतीयते तथाग्निष्टोमादिवाक्यादन्यो नियोगः प्रतीयते इति नियामकमनया रीत्याप्रवर्तकस्वभावेऽपि विधिरेव वाक्यार्थो न नियोगः। घटवदिति व्यतिरेकदृष्टांतः । (ब्या० प्र०) 5 पुरुष। 6 नियोगो वाक्यार्थो न भवेदतः कारणात् । (ब्या० प्र०) 7 नियुज्यमान-इति पा० । (ब्या० प्र०) 8 यागादि। 9 अग्निष्टोमेत्यादि। 10 अग्निष्टोमेत्यादि । (ब्या० प्र०) 11 दूषणं । (ब्या० प्र०) 12 विधिपक्षे। 13 विधिर्न वाक्यार्थः इत्यादि। 14 अवश्यकरणीयतयाभिमन्यमान । सर्व वै खल्विदं ब्रह्मेत्यादिवाक्याद्विधाप्यमान। 15 यागादिरूप। 16 आत्मा।
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