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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ६७ [ विधि: फलरहितः सहितो वा इत्याद्यभ्युपगमे हानिः ! किञ्च विधिः फलरहितो वा स्यात् फलसहितो वा ? फलरहितश्चेन्न प्रवर्तको नियोगवदेव' । 'पुरुषाद्वैते न कश्चित् कुतश्चित्प्रवर्तक इति चेत् कथमप्रवर्तको विधिः सर्वथा वाक्यार्थः 'कथ्यते ।—तथा नियोगस्यापि वाक्यार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा दृष्टव्यो रेऽयमात्मेत्यादिवाक्यादात्मनि दर्शनश्रवणानुमननध्यानविधाने प्रतिपत्तुर प्रवृत्तौ 'किमर्थस्तद्वाक्याभ्यासः ? फलसहितो विधिरिति कल्पनायां फलाथितयैव लोकस्य प्रवृत्तिसिद्धर्व्यर्थं अर्थात् आप जैसे नियोगवाद को अप्रवर्तक स्वभाव मान करके वाक्य का अर्थ नहीं मानते हो तथैव आपका परमब्रह्म भी वेदवाक्य का अर्थ नहीं हो सकेगा। [ विधि को फल रहित या सहित मानने में दोषारोपण ] प्रकारांतर से यह भी प्रश्न होता है कि वह विधि फल रहित है या फल सहित ? फल रहित कहो तो नियोग के समान ही प्रवर्तक नहीं होगी। अर्थात् आपके मन से नियोग फल शून्य होने से ही प्रवर्तक नहीं है अत: वेदवाक्य का अर्थ भी नहीं है । विधिवादी-हमारे यहाँ पुरुषाद्वैतवाद में कोई भी किसी-वेदवाक्य प्रकार से प्रवर्तक है ही नहीं। __ भाट्ट-तब तो सर्वथा अप्रवर्तक विधि वेदवाक्य का अर्थ है यह भी कैसे कहा जावेगा ? अन्यथा- अप्रवर्तक होते हुये नियोग भी वेदवाक्य का अर्थ हो जावेगा और उस प्रकार से "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि वाक्यों से ब्रह्मरूप आत्मा का दर्शन, श्रवण, अनुमनन और ध्यान करने में प्रतिपत्ता-मनुष्य की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकेगी पुनः उन वेदवाक्यों का अभ्यास भी किसलिये किया जावेगा? अर्थात् "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि वाक्यों से परमब्रह्म रूप आत्मा का दर्शन, श्रवण, ध्यान करना आदि प्रवत्ति रूप ही तो है पुनः विधि को फल रहित या अप्रवर्तक मानने पर तो उपर्यक्त त्ति कैसे घटित हो सकेगी? यदि विधि को फलसहित मानो तब तो फलार्थी होने से ही लोक की प्रवृत्ति सिद्ध है पुनः विधि को प्रवर्तक कहना नियोग के कथन के समान व्यर्थ ही हो जाता है। तथापि-अप्रवर्तक होने पर भी यदि आप विधि को वेदवाक्य का अर्थ कहोगे तब तो नियोग भी वाक्य का अर्थ क्यों नहीं होगा ? अर्थात् प्रमाण और प्रमेयादि अनेक विकल्पों के निरसन द्वारा विधि वेदवाक्य का अर्थ है ऐसा सिद्ध नहीं हुआ फिर भी विधिवादी यदि हठपूर्वक विधि को वेदवाक्य का अर्थ मान ही लेवें तो नियोग भी वेदवाक्य का अर्थ क्यों नहीं होगा ? 1 विधि: पक्षः वाक्यार्थो न भवतीति साध्यो धर्मः-अप्रवर्तकत्वान्नियोगवत् । 2 अत्राह विधिवादी।-कश्चिद्विधिः कूतश्चित्प्रमाणात्प्रमाणाद्वैते प्रवर्तको न स्यात् । 3 वाक्यात् । (ब्या० प्र०) 4 अन्यथा। 5 अप्रवर्तकत्वेन । 6 ब्रह्मणि । 7 किप्रयोजनकः । दृष्टव्येत्यादि । विधि: प्रवर्तक इति प्रतिपादनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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