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________________ अष्टसहस्री ७२ ] में दोनों का संकर हो जाने से नियोज्य और अनियोज्य रूप दो प्रकार का विभाग भी नहीं हो सकेगा । यदि सिद्ध असिद्ध, इन दोनों रूपों का आत्मा संकर न मानों तब तो इन दोनों स्वभावों से अभिन्न एक आत्मा के भेद का प्रसंग आ जावेगा अथवा नित्य- आत्मा से ये दोनों रूप पृथक् हो जावेंगे ऐसी दशा में ये दोनों सिद्ध असिद्ध रूप आत्मा के हैं ऐसा नियामक बताने वाला कोई संबंध आपके यहाँ है ही नहीं, क्योंकि राजा का पुरुष, गुरु का शिष्य या पुरुष का राजा, शिष्य का गुरु, यहाँ परस्पर में आजीविका देना, चाकरी देना, पढ़ाना, सेवा करना आदि उपकार करने से स्वामी - भृत्य संबंध, गुरुशिष्य संबंध, राजा प्रजा संबंध माने जाते हैं, किन्तु उपकार नहीं होने से उन सिद्ध असिद्ध रूप और कूटस्थ नित्य आत्मा का कोई षष्ठी विधायक सम्बन्ध नहीं हो पाता है । Jain Education International [ कारिका ३ यदि उपकार की कल्पना करो तो प्रश्न यह होता है कि इन सिद्ध असिद्ध दोनों रूपों से आत्मा के ऊपर उपकार किया जाता है या आत्मा के द्वारा दो रूपों पर उपकार किया जाता है ? प्रथम विकल्प मानों तो आत्मा नित्य नहीं माना जा सकेगा क्योंकि जो उपकृत होता है वह कार्य होता है और कार्य अनित्य ही होता है । यदि दूसरे विकल्पानुसार सिद्धासिद्ध रूपों पर आत्मा के द्वारा उपकार मानों तब तो जो सिद्ध रूप हो चुका है उसमें उपकार को धारण करने योग्य कोई अंश शेष नहीं है । यदि दूसरे असिद्ध रूप को भी उपकार प्राप्त करने योग्य माना जावे तब तो आकाश पुष्प आदि भी उपकार झेलने वाले हो जायेंगे । यदि कथंचित् सिद्धासिद्ध रूप कहो तो उपर्युक्त दोषों की ही अवस्था चलती रहेगी। इस प्रकार से विधिवादी ने नियोगवादी पर दुषण दिया है अब भाट्ट इन्हीं सभी दूषणों को विधिवादी पर आरोपित करते हैं । देखिये ! विधान कराये जा रहे पुरुष का धर्म विधि है और परिपूर्णतया सिद्ध हो चुका श्रोतापुरुष भी नित्य है वह नित्य पुरुष परमब्रह्म का दर्शन श्रवण आदि कैसे कर सकेगा क्योंकि जो पहले दर्शन आदि से रहित है वह परिणामी पदार्थ ही दर्शनादि का विधान अनुष्ठान कर सकता है, नित्य कृतकृत्य नहीं हैं । यदि सिद्ध हो चुका पुरुष भी दर्शन, श्रवणादि का विधान करेगा तो सर्वदा ही उन दर्शन, मनन आदि से विराम नहीं हो सकेगा क्योंकि दो-चार बार दर्शन कर चुकने पर भी पुनः पुनः सिद्ध हो चुके पुरुष भी यदि दर्शनादि में प्रवृत्ति करते रहेंगे तो पूर्ववत् चर्वितचर्वण ही होता रहेगा। यदि आप कहें कि आत्मा का धर्म रूप जो विधि है उसका दर्शन श्रवण आदि स्वरूप असिद्ध नहीं है तब तो कछुवे के रोम के समान उस असिद्ध स्वरूप आदि से असत् रूप विधि का विधान नहीं हो सकेगा । यदि उस विधि को सिद्ध असिद्ध ऐसे दो रूप मानोंगे तब तो एक ही परमब्रह्म सिद्ध रूप होने से विधान करने योग्य होगा और असिद्ध रूप से विधान के योग्य नहीं होगा तो संकर दोष आ - जावेगा एवं विधान करने के योग्य-अयोग्य का विभाग नहीं हो सकेगा । तथा एक ब्रह्म में स्वरूप संकर न मानने से दोनों रूपों का आत्मा से भेद हो जावेगा एवं सर्वथा भिन्न सिद्धासिद्ध दोनों रूपों का आत्मा के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं बनेगा । यदि उपकार की कल्पना करोगे तब तो पूर्ववत् दोष आते ही रहेंगे । अतः नियोग के समान आपका ब्रह्माद्वैत भी सिद्ध नहीं हो सकता है । यहाँ नियोगवादी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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