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________________ ६२ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३करवत् । 'तथान्यापोहस्य' प्रतिभासमानस्य प्रतिभाससमानाधिकरणत्वेपि प्रतिभासाभेदव्यवस्थितेस्तद्विषयः शब्दः कथं विधिविषय एव समवतिष्ठते । तथाभ्युपगमे च कथमन्यपरिहारेण क्वचित्प्रवर्तक: शब्दो यतो विधिविषयः स्यादिति सूक्तम्-विधेः प्रमाणत्वे तस्यैव प्रमेयत्वकल्पनायामन्यापोहानुप्रवेशोन्यथान्यत्प्रमेयं वाच्यमिति । [ विधिः प्रमेयादिस्वरूपाभ्युपगमेऽपि दोषाः संभवंतीत्याह ] प्रमेयरूपो विधिरिति कल्पनायामपि प्रमाणमन्यद्वाच्यमिति तस्यैवोभय'स्वभावत्व पर्वत और समुद्र के समान समानाधिकरण नहीं है उसी प्रकार से अन्यापोह प्रतिभासमान का प्रतिभास समानाधिकरण होने पर भी प्रतिभास से वह अन्यापोह भिन्न ही सिद्ध होता है पुनः तद्विषयक शब्द विधि को ही विषय करता है यह बात कैसे सिद्ध हो सकेगी और ऐसा स्वीकार कर लेने पर तो शब्द कहीं पर भी अन्य का परिहार करके कैसे प्रवृत्ति करेगा कि जिससे वह विधि को ही विषय करने वाला हो सके ? अर्थात् अन्यापोह विषयक शब्द विधि-विषयक होता है ऐसा स्वीकार करने पर तो नैरात्म्यादि-शून्यवादी जनों का परिहार करके परब्रह्म में अथवा अविवक्षित वस्तु का परिहार करके किसी विवक्षित वस्तु में शब्द प्रवृत्ति कैसे कर सकेगा ? जिससे कि वह शब्द विधि को विषय करने वाला ही होवे, अर्थात् नहीं होगा। अतएव शब्द परार्थ-अन्य के अर्थ को छोड़कर स्व अर्थ में प्रवृत्ति करता हुआ भावाभावात्मक है यही स्याद्वाद प्रक्रिया है । इसलिए यह बात बिल्कुल ठीक कही है कि-विधि को प्रमाण रूप स्वीकार करके पुन: उसी में ही प्रमेय की कल्पना भी कर लेने पर अन्यापोहवाद में अनुप्रवेश हो जाता है। अन्यथा आपको "अन्य कोई प्रमेय है" ऐसा कहना चाहिये। [ वेदवाक्य का अर्थ विधि-परमब्रह्म रूप है, ऐसी मान्यता में भाट्ट ने प्रश्न उठाये थे कि आपका यह ब्रह्माद्वैतवाद प्रमाण रूप है या प्रमेय रूप इत्यादि ? उसमें से विधि को प्रमाण रूप मानने से उस भाट्ट ने यहाँ तक उस विधिवादी को दूषण दिया है अब आगे उस विधि को प्रमेय रूप मानने पर दूषण दिखाते हैं। ] (२) द्वितीय पक्ष में विधि 'प्रमेय रूप है" ऐसी कल्पना के करने पर भी किसी भिन्न को प्रमाण 1 पटप्रकारेण । 2 समानाधिकरणता इति सम्बन्धः। 3 कथञ्चिद्भेदे सामानाधिकरण्यव्यवस्थापनद्वारेण प्रतिभासमानोन्यापोहः समानाधिकरणत्वे सत्यपि प्रतिभासाभिन्नो व्यवतिष्ठते, यतस्तस्मादन्यापोहविषयः शब्दो विधिविषय एव कथं समवतिष्ठते ? न कथमपि । 4 अन्यापोहविषयः शब्दो विधिविषयो भवतीत्यंगीकारे कृते सति नैरात्म्यादिपरिहारेणाविवक्षितवस्तूपरिहारेण वा क्वचिद्ब्रह्मणि विवक्षितवस्तूनि वा शब्दः कथं प्रवर्तको यतः कुतो विधिविषयः स्यान्न कुतोपि । एवं शब्दः परार्थं परिहृत्त्य स्वार्थे प्रवर्त्तमानो भावाभावात्मको ज्ञेय इति स्याद्वादप्रक्रिया । 5 अन्यापोहवादी आह-अप्रमाणत्वव्यावृत्त्या प्रमाणत्वमप्रमेयत्वव्यावृत्त्या प्रमेयत्वमित्यन्यापोहावतारः। 6 अन्यापोहस्य प्रमेयत्वकल्पनाभावे। 7 अन्यापोहवादानप्रवेशेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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