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विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ६१ घट: प्रतिभासत इति प्रतिभासविषयो भवतीत्युच्यते विषयविषयिणोर'भेदोपचारात्, प्रस्थप्रमितं धान्यं प्रस्थ इति यथा । ततः सामानाधिकरण्यादुपचरितान्नानुपचरितैकत्वसिद्धिः । मुख्यं सामानाधिकरण्यं क्व सिद्धमिति चेत्, संवेदनं प्रतिभासते भाति चकास्तीत्यादि व्यवहारे मुख्यम् । ततो वैयधिकरण्यव्यवहारस्तु गौणस्तत्र' संवेदनस्य प्रतिभासनमिति पटस्य प्रतिभासनमित्यत्र तस्य मुख्यत्वप्रसिद्धः । कथञ्चिद्भेदमन्तरेण सामानाधिकरण्यानुपपत्तेश्च । तत एव 'कथञ्चिद्भेदसिद्धिः । 12शुक्लः पट इत्यत्र सर्वथा शुक्लपटयोरक्ये हि न समानाधिकरणता13 पट:14 पट इति यथा । नापि सर्वथा भेदे हिमवन्मकराविषय-विषयी भाव है घट प्रतिभासित होता है इसमें अभेदोपचार है जैसे प्रस्थ प्रमाण धान्य को प्रस्थ कह देते हैं इसलिये उपचरित समानाधिकरण से अनुपचरित–वास्तविक एकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है।
शंका-मुख्य समानाधिकरण कहाँ पर सिद्ध है ?
समाधान-संवेदन प्रतिभासित होता है “संवेदनं प्रतिभासते भाति चकास्ति' इत्यादि व्यवहार में मुख्य है। इसलिए वैयधिकरण व्यवहार गौण है मुख्य समानाधिकरण में "संवेदनस्य प्रतिभासनमिति पटस्य प्रतिभासनमिति" संवेदन का प्रतिभासन, पट का प्रतिभासन इस प्रकार से यहाँ प्रतिभासन में वैयधिकरण्य व्यवहार मुख्य है। कथंचित् भेद को माने बिना समानाधिकरण बन नहीं सकता इसलिये उस समानाधिकरण से ही कथंचित भेद की सिद्धि होती है। अर्थात प्रतिभासित होने योग्य पदार्थ और प्रतिभास रूप ज्ञान के प्रकार से भेद सिद्ध ही है। "शुक्लः पट:" इसमें यदि सर्वथा शुक्ल और पट में ऐक्य मानों तो समानाधिकरण नहीं बनेगा जैसे पट पट में समानाधिकरण नहीं है। अर्थात् "पट: पटः" इस प्रकार से दो पट शब्द हैं, वे दोनों एक अर्थ के वाचक हैं या अनेक अर्थ के वाचक हैं? यदि एक अर्थ के वाचक हैं तो भिन्न प्रवत्ति में निमित्त नहीं हो सकेंगे और यदि भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं तो एक अर्थ की वत्ति नहीं बन सकेगी। तथैव सर्वथा भेद में भी हिमवान 1 घटः प्रतिभासत इत्युपचरितं सामानाधिकरण्यं, संवेदनं प्रतिभासते इति मुख्यं सामानाधिकरण्य, संवेदनस्य प्रतिभासनमिति उपचरितं बैयधिकरण्यं, पटस्य प्रतिभासनमिति मुख्यं वैयधिकरण्यम् । 2 यदि घटप्रतिभासयोविषयविषयिभावस्तदा कथं घट: प्रतिभासते इत्याशंक्याह। (ब्या० प्र०) 3 यदि घटप्रतिभासयोविषयविषयिभावस्तदा कथं घटः प्रतिभासते इत्याशक्याह । "मुख्यबाधायां" सति हि प्रयोजने निमित्त चोपचारः प्रवर्तते इतिन्यायानुसाराद् घट: प्रतिभासत इत्यत्राभेद उपचर्यते तत्र घटस्याप्रतिभासत्वं मुख्यबाधाप्रतिभासत्वंनिमित्तं तद्व्यवहारः प्रयोजनमिति । 4 घट: प्रतिभासत इत्यत्र घटे ज्ञानस्योपचारो विषयिभावो निमित्तम् । 5 यत एवं तत उपचारभूतादन्यापोहस्य प्रतिभाससामानाधिकरण्यान्न परमार्थभूतकत्वसिद्धिः। 6 भिन्नाधिकरुण्यव्यवहारः। 7 मूख्ये सामानाधिकरण्ये। 8 वैयधिकरण्य व्यवहारस्य। 9 सामानाधिकरण्यस्यानुपपत्तेश्च । (ब्या० प्र०) 10 सामानाधिकरण्यादेव । 11 प्रतिभासस्यप्रतिभासकप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 12 सर्वथा भेदे वा कि दूषणमित्युक्ते आह। 13 भिन्नप्रवृत्ति निमित्तानां शब्दानामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिनिमित्तत्वं। (ब्या० प्र०) 14 एकस्मिन् । पटशब्दद्वयस्यैकार्थवाचकत्वं वा इति विकल्प्य दूषणांतरयोरेकार्थवाचकत्वे भिन्नप्रवृत्तिनिमितत्वाघटनात् । भिन्नार्थवाचकत्वे एकार्थवृत्तित्वाघटनात् । (ब्या० प्र०)
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