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________________ अष्टसहस्री ६० ] [ कारिका ३पादिकादिभ्यो भिन्नमुपनिषद्वाक्यं 'सकृत्तत्संवेद्यत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्यचित्स्वभावं, सिद्ध बहिर्वस्तु तद्वद्घटादिवस्तुसिद्धिरिति न प्रतिभासाद्वैतव्यवस्था प्रतिभास्यस्यापि सुप्रसिद्धत्वात् । 'प्रतिभास समानाधिकरणता पुनः प्रतिभास्यस्य' कथञ्चिभेदेपि न विरुध्द्यते । है इसलिये वह अचित्स्वभाव रूप बहिर्वस्तु सिद्ध है अर्थात् यदि उपनिषद्वाक्य प्रतिपादकादिकों से भिन्न नहीं हो न होवे तो उन सभी क I किन्तु थ सबको उसका संवेदन देखा जाता है अतः उपनिषद्वाक्य अचेतन स्वभाव हैं और बाह्यवस्तु रूप हैं यह बात सिद्ध हो गई। उसी प्रकार से घटादि वस्तुएँ भी बाह्यवस्तु हैं इसलिये प्रतिभासाद्वैत-ब्रह्माद्वैत की व्यवस्था नहीं हो सकती क्योंकि प्रतिभासित होने योग्य-प्रतिभास्य बाह्य पदार्थ सुप्रसिद्ध हैं। अर्थात् उपनिषद्वाक्य और घटादि वस्तुरूप प्रतिभास्य प्रमेय भी जगत् में प्रसिद्ध हैं न कि प्रतिभास मात्र एक पुरुष । प्रतिभाससमानाधिकरणता भी प्रतिभास्य से कथंचित् भेद होने पर विरुद्ध नहीं है अर्थात् घट प्रतिभासित होता है, पट प्रतिभासित होता है यह समानाधिकरणता है। यदि कोई कहे कि घटादि पदार्थ ज्ञान से अर्थातरभूत हैं पुन: घटादिपदार्थों की ज्ञान से समानाधिकरणता कैसे घटेगी ? अर्थात् घट और ज्ञान में विषय-विषयी-भाव है घट तो विषय है और ज्ञान विषयी है तब घट प्रतिभासित होता है ऐसा कैसे कह सकेंगे? इसका उत्तर तो यही है कि प्रतिभास की समानता है। ज्ञान से ज्ञेय पदार्थ उपचार से अभिन्न हैं किन्तु परमार्थ से भिन्न हैं। इस प्रकार से प्रतिभास से प्रतिभासित होने योग्य-अन्यापोह लक्षण में कंथचित् भेद होने पर भी प्रतिभास की समानाधिकरणता विरुद्ध नहीं है। प्रतिभास है समानाधिकरण जिसका उसे प्रतिभास समानाधिकरण कहते हैं। घट प्रतिभासित होता है। मतलब घट प्रतिभास का विषय होता है ऐसा कहने से विषय और विषयी में उपचार से अभेद माना है। अर्थात् “घट प्रतिभामित होता है" यह उपचरित समानाधिकरण है, संवेदन-ज्ञान प्रतिभासित होता है यह मुख्य समानाधिकरण है, संवेदन का प्रतिभासन यह उपचरित वैयधिकरण्य है और पट का प्रतिभास यह मुख्य वैयधिकरण्य है। घट और प्रतिभास में 1 उपनिषद्वाक्यं प्रतिपादकादिभ्यो भिन्नं न भवतीति चेत्तदा प्रतिपादकादीनां युगपदेव सर्वेषां संवेद्यत्वं न भवेत् । 2 तेषां प्रतिपादकादीनाम् । 3 प्रत्यक्षरूपतया। (ब्या० प्र०) 4 उपनिषद्वाक्यमचित्स्वभावं सद्वहिर्वस्तु सिद्धं यथा तद्वत् (उपनिषद्वाक्यवत्) घटादिवस्तुनोपि बहिर्वस्तूत्वं सिध्द्यति । 5 तत्सिद्धं । इतिपा० । (ब्या० प्र०) 6 उपनिषद्वाक्यं घटादि वस्तुरूपं प्रतिभास्यं प्रमेयमपि सुप्रसिद्धम् । (प्रतिभासस्यापीति खपाठः)। 7 घट: प्रतिभासते, ज्ञानं प्रतिभासते इति प्रतिभाससमानाधिकरणता। 8 यदि घटादयो ज्ञानादर्थान्तरभूतास्तदा कथं ज्ञानसामानाधिकरण्यं घटादेर्घटेतेत्युक्ते आह प्रतिभाससमानेति। 9 प्रतिभासस्येति खपाठः। 10 ज्ञानाज ज्ञेयम्पचारादभिन्न परमार्थतो भिन्न मिति प्रतिभासात्प्रतिभास्यस्यान्यापोहलक्षणस्य कथञ्चिद्भेदेपि प्रतिभाससमानाधिकरणता न विरुध्द्यते। प्रतिभासः समानमधिकरणं यस्य स समानाधिकरणस्तस्य भावः प्रतिभाससमानाधिकरणता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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