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________________ विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ५६ कादीनां भेदसिद्धिः - -'विरूद्धधर्माध्यासात् । अनाद्यऽविद्योपकल्पित एव तदविद्यानां भेदो न पारमार्थिक इति चेत्, परमार्थतस्तर्ह्यभिन्नास्तदविद्या इति स एव प्रतिपादकादीनां सङ्करप्रसङ्ग । यदि पुनरविद्यापि प्रतिपादकादीनामविद्योपकल्पितत्वादेव, न भेदाभेदविकल्पसहा 'नीरूपत्वादिति मतं तदा परमार्थपथावतारिणः प्रतिपादकादय इति बलादायातम् —– तदविद्यानामविद्योपकल्पितत्वे विद्यात्वविधेरवश्यम्भावित्वात् । तथा च प्रति अविद्या शिष्य में शिष्य की उपकल्पना करने में तत्पर हुई प्रतिपादक गुरु आदि में समान रूप से विद्यमान है पुनः उन गुरुओं में शिष्य की कल्पना भी करा देगी । एवं प्रतिपादकों में अभेद होने से उस अविद्या में भी अभेद का प्रसंग आ जावेगा पुनः सभी प्रतिपादकादिकों में संकर का प्रसंग आ जावेगा अर्थात् गुरु जी शिष्य बन जावेंगे एवं शिष्य गुरु जी बन बैठेंगे । अथवा अविद्या के भेद से उन प्रतिपादकों में भेद की सिद्धि माननी पड़ेगी तब तो अभेद को सिद्ध करने में प्रवृत्त हुये आप भेद को सिद्ध कर देंगे तो विरुद्धधर्माध्यास हो जावेगा । विधिवादी -उन अविद्याओं का जो भेद है वह भी अनादि अविद्या से उपकल्पित ही है पारमार्थिक नहीं है । भाट्ट- - तब तो परमार्थ से वह अविद्या अभिन्न ही रही । अतः प्रतिपादक आदिकों में वही संकर दोष आ जावेगा अर्थात् गुरु और शिष्यादि का भेद न रहने से गुरु ही शिष्य और शिष्य ही गुरु बन बैठेंगे । विधिवादी - प्रतिपादकादिकों की अविद्या भी अविद्या से ही उपकल्पित है अर्थात् प्रतिपादक आदि केवल अविद्या से ही उपकल्पित है ऐसा ही नहीं हैं किन्तु अविद्या भी अविद्या से ही उपकल्पित है | अतः वह भेद और अभेद के विकल्प को सहन ही नहीं कर सकती हैं क्योंकि वह नीरूप - निःस्वभावतुच्छाभाव रूप है अर्थात् अविद्यमान रूप है [ यहाँ पर भाट्ट जैन मत का आश्रय लेकर विधिवाद का खंडन करता है ] भाट्ट - यदि आप ऐसा मानते हैं तब तो प्रतिपादकादि - गुरु, शिष्य आदि परमार्थ पथावतारी ही हैं यह बात बलपूर्वक आ गई क्योंकि उन प्रतिपादकादिकों की अविद्या को अनादि अविद्या से कल्पित मानने पर विद्या की विधि ही अवश्यंभावी है और इस प्रकार से प्रतिपादकादिकों से उपनिषद्वाक्य भिन्न हैं क्योंकि युगपत् उन गुरु शिष्यादिकों के संवेदन करने योग्य संवेद्य की अन्यथानुपपत्ति 1 अभेदसाधने प्रवृत्तत्वे भेदः साधित इति विरुद्धधर्माध्यासः (अध्यासः साहित्यम्) । 2 य एव प्रतिपादक स एव प्रतिपाद्य इति । 3 न केवलं प्रतिपादकादय एवाविद्योपकल्पिताः । 4 तस्या अविद्याया नीरूपत्वाद् अविद्यमानत्वादित्यर्थः । 5 प्रतिपादकाद्य विद्यानामनाद्यविद्योपकल्पितत्वे प्रतिपादकादीनां विद्यासद्भावोऽवश्यमेव सम्भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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