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________________ ५८ ] अष्टसहस्री . [ कारिका ३कस्याविद्या प्रतिपादकत्वोपकल्पिका सैव प्रतिपाद्यस्य प्राश्निकादेश्चाविशिष्टा प्रतिपादकत्वमुपकल्पयेत् । प्रतिपाद्यस्य चाविद्या प्रतिपाद्यत्वोपकल्पनपरा प्रतिपादकादेरविशिष्टा प्रतिपाद्यत्वं परिकल्पयेत् प्रतिपादकादीनामभेदात्तदविद्यानामभेदप्रसङ्गात्' । भेदे वा प्रतिपाद भावार्थ-प्रश्न यह होता है कि आप विधिवादी “सवं वै खल्विदं ब्रह्म" इस उपनिषद्वाक्य रूप आगम को एवं "प्रतिभासमानत्वात्" इस हेतु को अचेतन स्वभाव मानते हो या चेतन स्वभाव ? यदि कहो कि इन्हें हम अचेतन स्वभाव कहते हैं तब तो चेतन स्वरूप परमब्रह्म से ये भिन्न ही रहेंगे पुनः आप अद्वैतवादी के यहाँ द्वैत का प्रसंग आ जावेगा और यदि आप इन्हें चेतन स्वभाव कहें तो चार विकल्प उठाये जा सकते हैं कि ये आगम वाक्य और हेतु गुरु के चेतन स्वभाव हैं या शिष्य के, प्राश्निकजनों के या सभी जनों के चेतन के स्वभाव हैं ? गुरु के कहने पर तो शिष्य को उनका अनुभव नहीं होगा अर्थात् गुरु के चेतनस्वभाव रूप आगम और हेतु गुरु के ही संवेदन योग्य हैं शिष्य के संवेदन करने योग्य नहीं हैं क्योंकि वे गुरु के ही चैतन्य स्वभाव हैं। जो जो गुरु का स्वभाव होता है वह वह शिष्य को संवेद्य नहीं होता है जैसे कि गुरु के सुख-दुःखादि का अनुभव गुरु को ही होता है शिष्यों को नहीं हो सकता है । इसी प्रकार से यदि दूसरे पक्ष में आप इन आगम और हेतु को शिष्य का चैतन्य स्वभाव कहो तो भी वे गुरु के द्वारा अनुभव करने योग्य नहीं रहेंगे एवं तीसरे विकल्पानुसार यदि इन्हें प्रश्न करने वालों का चेतन स्वभाव कहो तो गुरु और शिष्य दोनों को ही इनका ज्ञान नहीं हो सकेगा। तथा इन्हें सभी का चेतन स्वभाव माना जावेगा तब तो ये गुरु हैं, ये शिष्य हैं, ये प्राश्निक लोग हैं एवं ये सुनने वाले हैं इत्यादि रूप से कुछ भी भेदभाव नहीं बन सकेगा और यदि अविद्या से ही आप यह सब भेद स्वीकार करोगे तो भी आपके यहाँ अविद्या भी सर्वथा निःस्वभाव-स्वभाव से शून्य ही है उसके द्वारा इन कल्पित भेद भावों की व्यवस्था नहीं की जा सकेगी जैसे कि आकाश के गलाब पुष्पों से माला बना कर बंध्या के पत्र को पहनाना शक्य नहीं है तद्वत आपके द्वारा कल्पित अविद्या से असत रूप गरु शिष्यादि भेद करना सर्वथा असंभव ही है । इस अविद्या के विषय में आगे स्वयं ही स्पष्टीकरण किया जा रहा है। विधिवादी-प्रतिपादक, प्रतिपाद्य आदि भाव तो अविद्या से ही उपकल्पित हैं अतः कोई दोष नहीं आता है। भाट्ट-तब तो जो अविद्या प्रतिपादक-गुरु में प्रतिपादकपने को कल्पित कराती है वही अविद्या प्रतिपाद्य-शिष्य और प्राश्निकजनों में समान रूप से है अतः उन्हें भी प्रतिपादक-गुरु बना देने में क्या बाधा है ? अर्थात् जो अविद्या गुरु में गुरुत्व की व्यवस्था करती है वही अविद्या शिष्यादिकों से अभिन्न होती हुई शिष्यादिकों को भी गुरु रूप से व्यवस्थापित कर सकती है। शिष्य की 1 प्रतिपादकादीनां सङ्करप्रसङ्गः । प्रसङ्ग इति कपाठः । 2 अविद्याभेदकृतः प्रतिपादकादीनां भेद इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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