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विधिवाद ] प्रथम परिच्छेद
[ ५७ 'चित्स्वभावत्वे परसंवेद्यत्वविरोधात् प्रतिपादकचित्स्वभावत्वात्, तत्सुखादिवत् । प्रतिपाद्यचित्स्वभावत्वे वा न प्रतिपादकसंवेद्यत्वं प्रतिपाद्यसुखादिवत् । तस्य तदुभयचित्स्वभावत्वे प्राश्निकादिसंवेद्यत्वविरोधस्तदुभयसुखादिवत् । सकलजनचित्स्वभावत्वे प्रतिपादकादिभावानुपपत्तिः–'अविशेषात् । प्रतिपादकादीनामविद्योपकल्पितत्वाददोष इति चेत्, यव प्रतिपाद
उसी को होता है पर को नहीं होता है अथवा प्रतिपाद्य-शिष्य का चित्स्वभाव स्वीकार करने पर प्रतिपादक के संवेद्य नहीं होंगे, उस प्रतिपाद्य के सुखादि के समान । यदि उन उपनिषद् वाक्य और लिंग को गुरु और शिष्य दोनों का चित्स्वभाव मानोगे तब तो प्राश्निक-प्रश्न करने वाले मनुष्यादिकों के द्वारा संवेदन का विरोध हो जाता है उन दोनों गुरु शिष्यों के सुखादि के समान । अर्थात् गुरु और शिष्य के सुख दुःख का अनुभव गुरु और शिष्य को ही होगा, किन्तु प्रश्न करने वाले एवं सुनने वाले लोगों को गुरु शिष्य के सुख दुःख का अनुभव नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि उपनिषद्वाक्य और हेतु को चित्स्वभाव मानने पर दूसरों के द्वारा ये संवेद्य-ग्राह्य नहीं हो सकते हैं। तथा इन दोनों को गुरु का चित्स्वभाव कहने पर गुरु के सुख दुःखादि के समान उनका भी अन्य शिष्यों के द्वारा संवेदन विरुद्ध होता है । अथवा इन दोनों को यदि शिष्य का चित्स्वभाव कहोगे तो शिष्य के सुखादि के समान गुरु के द्वारा उनका संवेदन विरुद्ध हो जावेगा। यदि उन गुरु और शिष्य का ही चित्स्वभाव इन उपनिषद्वाक्य और हेतु को कहोगे तब तो ये प्रश्न करने वालों के ज्ञान के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकेंगे।
सभी प्रतिपाद्यजनों का चित्स्वभाव कहने पर तो प्रतिपादक आदि भाव ही नहीं बन सकेंगे, क्योंकि सभी समान हैं अर्थात् सभी जनों का चित्स्वभाव इन आगमवाक्य और हेतु को मान लेने पर उसका यह गुरु है, यह शिष्य है ये प्रश्न करने वाले लोग हैं इत्यादि भाव नहीं बन सकेंगे क्योंकि ये दोनों तो सभी के चित्स्वभाव हैं पुनः भेद कैसे होगा ?
1 सौगतो वदति हे विधिवादिन् तत् (उपनिषद्वाक्यं लिङ्गच) अचित्स्वभावं चित्स्वभावं वेति प्रश्नविकल्पः । अचित्स्वभाव चेत्तदा परब्रह्मणो द्वैतं व्यवस्थापयति । चित्स्वभावं चेत्तदा प्रतिपादकाद्यनुमानद्वारेण दूषयति । प्रतिपादकवाक्यं पक्षः प्रतिपाद्यसंवेद्यं न भवतीति साध्यो धर्मः प्रतिपादकचित्स्वभावत्वात् । यत्प्रतिपादकचित्स्वभावं तत्प्रतिपाद्यसंवेद्यं न, यथा प्रतिपादकसुखादिकम् । प्रतिपादकचित्स्वभावं चेदं तस्मात्प्रतिपाद्यसंवेद्यं न भवति । एवमग्रेपि । 2 उपनिषद्वाक्यस्य लिङ्गस्य च चित्स्वभावत्वे सति परेषां ग्राह्यत्वं विरुध्यते । उपनिषद्वाक्यस्य लिङ्गस्य गुरोश्च चित्स्वभावत्वमस्तीत्युक्ते तथा सति गुरुसूखदुःखादिवत्तस्यापि परेषां प्रतिपाद्यादीनां संवेद्यत्वं विरुध्यते । तस्य शष्यस्य चित्स्वभावत्वे सति वा शिष्यसुखादेर्यथा तथा तस्यापि गुरोः संवेद्यत्वं विरुध्यते । तस्य गुरुशिष्योभयचित्स्वभावत्वे सति तत्सुखादेर्यथा तथोपनिषद्वाक्यस्यापि प्राश्निकानां संवेद्यत्वं ज्ञानग्राह्यत्वं विरुध्यते। 3 प्रतिपाद्यादि । 4 सर्वजनचित्स्वभावत्वे सति तस्यायं गुरुः, अयं शिष्यः, अमी प्राश्निका इत्यादिभावो नोपपद्यते सर्वेषां चित्स्वभावत्वेन विशेषाभावात् । 5 या अविद्या गुरोर्गुरुत्वव्यवस्थापिका सैव शिष्यादेः सकाशादभिन्ना सती शिष्यादेरपि गुरुत्वं व्यवस्थापयेत् । 6 सकलजनचित्स्वभावस्याविशेषात् ।
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