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________________ ५६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३परिकल्पनात्ततस्तत्प्रतिपत्तिरिति चेत् कथं तत्परिकल्पिताद्वाक्याल्लिङ्गाद्वा परमार्थपथावतारिणः परमब्रह्मणः प्रतिपत्तिः-परिकल्पिताधूमादेः पारमार्थिकपात्रकादिप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । पारमार्थिकमेवोपनिषद्वाक्यं लिङ्ग च परमब्रह्मत्वेनेति' चेत् तर्हि' यथा तत्पारमार्थिक तथा साध्यसमं कथं पुरुषाद्वैतं व्यवस्थापयेत्' ? यथा च प्रतिपाद्यजनस्य प्रसिद्ध न तथा पारमार्थिक-द्वैत प्रसङ्गात् । इति कुतः परमार्थसिद्धिः । ततस्तामभ्युपगच्छता पारमार्थिकमुपनिषद्वाक्यं लिङ्ग च प्रतिपत्तव्यम् । तच्चाचित्स्वभावं, भाट्ट-परिकल्पित उपनिषद्वाक्य से अथवा कल्पित हेतु से, परमार्थ-पथावतारी-वास्तविक परमब्रह्म का ज्ञान कैसे हो सकेगा? अन्यथा परिकल्पित धूमादि से वास्तविक अग्नि आदि का भी ज्ञान होने लगेगा। विधिवादी--उपनिषद्वाक्य और हेतु ये दोनों पारमार्थिक ही हैं, क्योंकि वे परमब्रह्म रूप भाट्ट-तब तो जैसे वे पारमार्थिक हैं वैसे ही कल्पितरूप से साध्यसम-असिद्ध पुरुषाद्वैत को कैसे व्यवस्थापित कर सकेंगे? क्योंकि जिस प्रकार से कल्पित रूप से प्रतिपाद्य जनों को प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार से वे पारमार्थिक नहीं है अन्यथा द्वैत का प्रसंग आ जावेगा इस प्रकार से परमार्थ की सिद्धि कैसे हो सकेगी? इसलिये उपनिषद् वाक्य और हेतु से परमार्थ सिद्धि को स्वीकार करते हुये आप विधिवादी को उपनिषद्वाक्य और हेतु को भी पारमार्थिक रूप ही स्वीकार करना चाहिए। वे उपनिषद्वाक्य एवं हेतु अचित्स्वभाव हैं। यदि आप इन उपनिषद् वाक्य और हेतु को चित्स्वभाव मानेंगे तब तो उपर्युक्त अनुमान के अनुसार पर के द्वारा संवेद्य का विरोध हो जायेगा, क्योंकि वे प्रतिपादक-गुरु के चित्स्वभाव हैं। जैसे कि उस प्रतिपादक के सुखादि का अनुभव स्वयं 1 भाट्टः । सौगतः। 2 विधिवाद्याह। 3 ब्रह्मरूपत्वेन । (ब्या० प्र०) 4 भाट्टः । सौगतो वदति । यथा तथेदं वाक्यं लिङ्ग वा सत्यभूतं तथा सत्यभूतपरब्रह्मसमानमनुमानं च कर्तृ पुरुषाद्वैतं कथं व्यवस्थापयेद् ? अपि तु न । 5 कल्पितत्वप्रकारेण । 6 असिद्धं । (ब्या० प्र०) 7 प्रतिपाद्य भेदेन सिद्धमुपनिषद्वाक्यमित्याशंकायामाहः । (ब्या० प्र०) 8 कल्पितत्व प्रकारेण । 9 येन प्रकारेणोपनिषद्वाक्यं लिङ्गच प्रतिपादकादिजनस्य प्रसिद्धं तेन प्रकारेण प्रसिद्धं पारमार्थिकं न पारमार्थिकम् । भवति चेत् तदा द्वैतं प्रसज्यते, इति कुतः पारमार्थिकसिद्धिः ? न कुतोपि । उपनिषद्वाक्यस्येति शेषः । 10 कोर्थः पारमाथिकम्पनिषद्वाक्यं लिङ्ग चेति त्वयोक्तं तथा चेत्साध्यसमं यथाप्रसिद्ध नथोपनिषदाक्यमप्यसिद्धम । असिद्ध साध्यमिति वचनात । विरुद्धयोरधिकरणात । 11 अन्यथा। 12 पारमाथिकत्वं प्रतिपाद्यस्य प्रसिद्ध किल तहि कुतः चित्स्वभावस्य प्रतिपाद्यादीनां प्रसिद्धरभावात्, प्रतिपादकसुखादिवत् । 13 तत उपनिषद्वाक्याल्लिङ्गाच्च परमार्थसिद्धिमङ्गीकुर्वता विधिवादिना उपनिषद्वाक्यं लिङ्ग च परमार्थभूतं ज्ञातव्यम् । 14 च अङ्गीकर्तव्यं प्रतिपत्तव्यमिति कपूस्तकपाठः। 15 विकल्पचतुष्टयं मनसि कृत्त्वा क्रमेण दूषयन्नाह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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