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________________ विधिवाद । प्रथम परिच्छेद [ ५५ शब्दज्ञानेस्यानुमानज्ञाने' चान्यापोहस्य प्रतिभासनेपि तत्समानाधिकरणतया प्रतिभासनान्न 'ततोन्यत्वम् । तस्य च शब्दानुमानज्ञानस्य प्रतिभासमात्रात्मकत्वान्नार्थान्तरत्वमिति चेत् कथमिदा नीमुपनिषद्वाक्यं प्रतिभासमात्रादन्यल्लिङ्ग1 वा12 यतस्तत्प्रतिपत्तिः "प्रेक्षावतः स्यात् । तस्य परमब्रह्म विवर्त्तत्वाद्विवर्त्तस्य च वित्तिनोऽभेदेन17 भावार्थ-विधि प्रतिभासित होती है, अन्यापोह प्रतिभासित होता है। इस प्रकार से अन्यापोह प्रतिभास समानाधिकरण है, विधिवादियों के अनुमान में अन्यापोह पक्ष है, प्रतिभास समानाधिकरण रूप से प्रतिभास के अन्तः प्रविष्ट है यह साध्य है, प्रतिभासमानत्वात् यह हेतु है। वे विधिवादी प्रश्न करते हैं कि अन्यापोह प्रतिभासित होता है या नहीं ? यदि होता है तो विधि में ही प्रविष्ट है, यदि नहीं होता है तो उसकी स्थिति ही नहीं हो सकती है । एवं प्रतिभासमान न होने पर भी यह अन्यापोह है इस प्रकार से उसकी स्थिात मानों तो असत् खर विषाणादि की भी स्थिति माननी पड़ेगी। शब्दज्ञान और अनुमानज्ञान में इस अन्यापोह का प्रतिभास होने पर भी तत्समानाधिकरणअभेद रूप से प्रतिभासित होने से वह अन्यापोह प्रतिभास से भिन्न नहीं है। एवं वह शब्दज्ञान और अनुमानज्ञान भी प्रतिभासमात्रात्मक स्वरूप वाला होने से प्रतिभास से भिन्न नहीं है। भाट्ट-प्रतिभास का समानाधिकरण होने से अन्यापोहादि प्रतिभास से भिन्न नहीं है ऐसा कहने पर तो "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादि उपनिषद्वाक्य अथवा "प्रतिभासमानत्वात्" हेतु प्रतिभासमात्र-परमब्रह्म से भिन्न कैसे हो सकेंगे कि जिससे उनका ज्ञान विद्वानों को हो सके अर्थात् ऐसी मान्यता में तो विद्वानों को उपनिषद्वाक्य अथवा हेतु का ज्ञान भी नहीं हो सकेगा। विधिवादी–वह हेतु परमब्रह्म की पर्याय है तथा पर्यायें अपने पर्यायी परमब्रह्म से अभिन्न मानी गई हैं, अतः उनका ज्ञान होता है । अथवा पाठांतर ऐसा भी है कि ये हेतु आदि परब्रह्म से भेद रूप कल्पित किये जाते हैं, वास्तव में उस ब्रह्म से उनमें भेद नहीं है। अतः भेद रूप से माने जाने से ही उनका ज्ञान होता रहता है। 1 अन्यापोह इति । 2 अन्यापोहोस्ति-अमुकत्वात् । 3 शब्दज्ञानेऽनुमानज्ञाने इ० पा० । (ब्या० प्र०) 4 अभेदतया । 5 प्रतिभासादन्यापोहस्यान्यत्वं न । 6 शब्दज्ञानानुमानज्ञानसमानाधिकरणत्वे न द्वैतप्रसंग इति शंकां परिहरति । (ब्या० प्र०) 7 प्रतिभासात् । विधेः। 8 प्रतिभाससामानाधिकरण्यात्प्रतिभासादन्यापोहादीनामभेदप्रतिपादनकाले । 9 सर्व व खल्विदं ब्रह्मेत्यादि । 10 ब्रह्मणः। 11 प्रतिभासमानत्वम् । 12 कथं । (ब्या० प्र०) 13 परमब्रह्मपरिज्ञानं विचारकस्य कुतः स्यात् ? न कुतोपि । 14 विधिवादी प्राह ।-लिङ्गस्य । 15 "पूर्वाकारापरित्यागादपरः प्रतिभाति चेत् । विवर्त्तः स परिज्ञेयो दर्पणे प्रतिबिम्बवत्" ("पूर्वाकारपरित्यागादिति कपाठः)। 16 ब्रह्मणः । • 17 भेदेन कल्पनमेव न तु परमार्थता भेदः । भेदेन इति पा० । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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