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अष्टही
[ कारिका ३
विद्योपकल्पितस्य नैरात्म्यादेः परिहार ! इति चेत् कथमेवमन्यापोह' वादिनोपि परापोहनमेव स्वरूपविधिर्न भवेत् ? ' तस्यान्यापोहवादविरोधा'न्नवमिति चेत् विधिवादिनोपि ' तथा विधिवादविरोधादन्यापोहाभ्युपगमो मा भूत् । परमार्थतोन्यापोहो विधिवादिना नैवाभ्युपगम्यते तस्य प्रतिभास समानाधिकरणत्वेन प्रतिभासान्तः प्रविष्टत्वसिद्धेः परमपुरुषत्वात्, प्रतिभासस्वरूपवत् । तस्याप्रतिभासमानत्वे 2 व्यवस्थानुपपत्तेरन्यथातिप्रसङ्गात् " । भाट्ट - यदि ऐसा मानते हो तो पुनः अन्य का परिहार करके शब्द की प्रवृत्ति कैसे नहीं होगी ?
वेदांती - परब्रह्म की विधि ही तो अनादि अविद्या से उपकल्पित-माने गये नैरात्म्यादि अन्यदर्शनों का परिहार है ।
भाट्ट - तब तो अन्यापोह वादी बौद्ध-शून्यवादियों के द्वारा पर का अपोहन - अभाव करना भी स्वरूप की विधि क्यों न हो जावेगा अर्थात् हो ही जावेगा । मतलब यह है कि शून्यवादियों के अन्यापोह से भी स्वरूप का ही विधान होता है ऐसा मान लेना चाहिये ।
विधिवादी - उस विधि का अन्यापोहवाद से विरोध है इसलिये वह अन्यापोह स्वरूप का विधान करने वाला नहीं हो सकता है । अर्थात् बौद्धों के यहाँ सभी वस्तुयें अपने स्वभाव से शून्य ही हैं क्योंकि स्वरूप की विधि - अस्तित्व को उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया है और अन्य के अभाव वस्तु से स्वरूप का विधान तो होता ही नहीं है ।
भट्ट - तब तो आप विधिवादियों के यहाँ भी विधि-कथन के प्रकार से अन्यापोह में विधिवाद का विरोध होने से अन्यापोह की स्वीकृति नहीं होनी चाहिये ।
विधिवादी - हम वेदांतियों ने तो परमार्थ से अन्यापोह को स्वीकार ही नहीं किया है वह अन्यापोह तो प्रतिभास- समानाधिकरण रूप के प्रतिभास के अन्तः प्रविष्ट सिद्ध है क्योंकि वह परम पुरुष रूप है जैसे कि प्रतिभास का स्वरूप । यदि उस अन्यापोह को प्रतिभासमान नहीं मानोगे तब तो व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी, अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा ।
1 निषेधः । 2 सोगतः । भाट्टः । 3 शून्यवादिनः । 4 अपि तु भवेदेव (विधिवादे दूषणं दत्तम्) । 5 विधिवाद्याह । —तस्यविधेरन्यापोहवादेन विरोधाद्धे सोगत ! यदुक्तं त्वया अन्यापोहनमेव विधिस्तदेवं न स्यात् । 6 सर्वेषां वस्तूनां निःस्वभावत्वं बौद्धानां मते यतः । स्वरूपविधेरनंगीकारादन्यस्यापोहनं स्वरूपविधिरिति नास्ति यतः । ( ब्या० प्र० ). 7 सौगतः । भाट्टः । 8 अन्यापोहस्य विधिकथनप्रकारेण । 9 विधिवादी । 10 विधिः प्रतिभासतेऽपोहः प्रतिभासते इत्यन्यापोहस्य प्रतिभाससामानाधिकरण्यम् । विधिवादिनोऽनुमानम् । - अन्यापोहः पक्षः प्रतिभाससमानाधिकरणत्वेन कृत्त्वा प्रतिभासान्तः प्रविष्टो भवतीति साध्यो धर्मः - प्रतिभासमानत्वात् । यत्प्रतिभासमानं तत्प्रतिभासान्तः प्रविष्टम् । प्रतिभासते चायं तस्मात्प्रतिभासान्तः प्रविष्टः । विधिवाद्याह । अन्यापोहः प्रतिभासते न प्रतिभासते वा ? प्रतिभासते चेत्तदा विधौ प्रविष्टः । न प्रतिभासते चेत्तदा तस्य व्यवस्थितिरपि नास्ति । 11 भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां एकस्मिन्नधिकरणे प्रवृत्तिः समानाधिकरणत्वं । ( व्या० प्र० ) 12 असावन्यापोह इति । (ब्या० प्र० ) 13 अप्रतिभासमानत्वेप्यन्यापोहस्य स्थितिरुपपद्यते चेत्तदातिप्रसङ्गः स्यात् । असतः स्थितिश्चेत्तदा खरविषाणादेरपि सास्तु |
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